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१४४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसूतये स पश्चात्संपूर्णः कलयति धरित्रीं तृण समाम् । अतश्चानैकान्त्याद् गुरुलघुतयार्थेषु धनिनामवस्था वस्तूनि प्रथयति च संकोचयति च ॥ - भर्तृहरि नीतिशतक, ४५
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जब मनुष्य दरिद्री होता है तो मुट्ठी ( पस्सा ) भर जी ( खाद्यान्न) की इच्छा करता है और धनी बनने पर वही मनुष्य संपूर्ण पृथ्वी को भी तिनके के समान समझता है । इससे स्पष्ट है कि मनुष्य की विशेष अवस्थाएँ ही पदार्थ में अपनी लघुता या गुरुता के कारण भिन्नता पैदा करती है; कभी उन वस्तुओं को फैलाती और कभी सिकोड़ती हैं ।
वह श्लोक वस्तुगत तथा व्यक्तिगत अर्घ (value) के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डालता है, जो कि नीतिशास्त्र का एक प्रमुख प्रत्यय है । यह नीतिवचन श्लोक शैली में है ।
श्लोकशैली संस्कृत भाषा में चली । इसी के समानांतर प्राकृत भाषा में गाथा-शैली में भी नीति की सुन्दर शिक्षाएँ दी गईं। एक-दो उदाहरण काफी होंगे।
far लोह संकलाण अण पि विविह पास बंधाणं । ताणां चिय अहियअरं वाया बंधं कुलीणस्स || 2
(दृढ़ लोहे की श्रृंखला तथा अन्य भी बहुत से बन्धन हैं, पर कुलीन के लिए वचन का बन्धन सबसे बड़ा है ।)
इसी प्रकार की नीति शिक्षाएँ गाथा - शैली में पालि भाषा में भी दी गई हैं ।
अन्योक्ति शैली - नीतिशास्त्र की यह शैली अधिक लोकप्रिय रही है । इसमें अन्य को लक्ष्य करके वक्ता अपनी बात कहता है । इससे श्रोता अथवा पाठक रस भी लेता है और सहज ही उसे नीति की शिक्षा भी मिल जाती है । मध्ययुग में इस शैली का प्रचलन अधिक रहा । प्राकृत भाषा की एक अन्योक्ति देखिए
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१. डा० सरयूप्रसाद अग्रवाल : प्राकृत विमर्श, लखनऊ, सं० २००६, पृ० ६
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