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१३० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशालन
हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता' । इसी प्रकार शुभ कर्म शुभ ( सुखप्रद ) फल देते हैं और अशुभ कर्म दुःखप्रद फल देते हैं, जीव को दुःखदायी होते हैं । 2
यह 'शुभ' और 'अशुभ' नीतिशास्त्र के प्रमुख प्रेरक तत्व और आधारभूत सिद्धान्त हैं । नीतिशास्त्र अशुभ और शुभ की विवेचना करके मानव को शुभ का मार्ग बताता है तथा उस शुभ को प्राप्त करने की प्रबल प्रेरणा देता । यही नीतिशास्त्र का हार्द है ।
कर्म - सिद्धान्त इसी रूप में नैतिक प्रत्यय है ।
शिवस्वामी अय्यर ने कर्म सिद्धान्त में तीन प्रधान तत्व बताये हैं
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(१) मनुष्य के प्रत्येक कर्म का फल होता है। यह फल भौतिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का होता है । यह मनुष्य के स्वभाव, चरित्र और प्रवृत्तियों पर प्रभाव डालता है । मनुष्य को पिछले जन्मों के कर्मों का फल भी वासना और संस्कार के रूप में प्राप्त होता है । (२) कर्म के लिए भावी जीवन (अगला जन्म तथा साथ ही पिछला जन्म भी ) होना चाहिए क्योंकि मनुष्य को अपने सभी कर्मों का फल इस जीवन में नहीं मिल पाता ।
(३) धनी - निर्धन, सुख-दुखी, बुद्धिमान मूर्ख आदि संसार में पाई जाने वाली विशेषताएँ पूर्वजन्मों के कर्मों का ही परिणाम हैं ।
यह सामान्य सी बात है कि कोई भी मनुष्य निर्धन, दुखी और मूर्ख नहीं रहना चाहता, सभी सुखी, धनवान, बुद्धिमान बनना चाहते हैं और यह भी मानव जानता है कि अनैतिक कार्यों का फल दुःखप्रद होता है, जबकि नैतिक कार्यों का सुखप्रद ।
१. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।
- उत्तराध्ययन सूत्र ४ / ३ और भी देखिए - 'यह विश्वास कि कोई भी अच्छा या बुरा कर्म ( बिना फल दिये ) समाप्त नहीं होता, नैतिक जगत का ठीक वैसा ही विश्वास है जैसा कि भौतिक जगत में ऊर्जा की अविनाशिता के नियम का विश्वास है ।
- ( मैक्समूलर - थ्री लेक्चर्स ऑन वेदान्त फिलासफी, पृ० १६५ ) २ सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला हवन्ति ।
दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णा फला हवन्ति ॥
३ उद्धृत — डा० रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० १२
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