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________________ नैतिक प्रत्यय | १२६ प्रवृत्ति प्रत्यय का अभिप्राय है-शुभ में प्रवृत्ति अथवा उन कार्यों को करना जो स्वयं के और समाज के विकास में सहायक हैं। दूसरों की सेवा करना, परस्पर सहयोग, सत्याचरण, प्रामाणिकता आदि नैतिक कार्य हैं, अतः इन कार्यों को करना चाहिए। ___भगवान महावीर ने नैतिक जीवन के लिए, प्रवृत्ति और निवृत्ति का रूप स्पष्ट करते हुए सुन्दर प्रेरणा दी है एक ओर से विरति (निवृत्ति) करनी चाहिए और दूसरी ओर प्रवृत्ति । असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए। __ नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में असंयम से अनैतिकता और संयम से नैतिकता का ग्रहण अपेक्षित है। ___ कर्म का प्रत्यय भारतीय दर्शनों का कर्म सिद्धान्त नैतिक जीवन के लिए अति आवश्यक है । कर्मसिद्धान्त की स्थिति नीतिशास्त्र के लिए वैसी ही है जैसी विज्ञान के लिए कार्य-कारण सिद्धान्त की। विज्ञान किसी भी कार्य के लिए कारण आवश्यक मानता है, इसी तरह मानव के सुख-दुःख के कारण उसके स्वयं के किये हुए कर्म हैं। . कर्म सिद्धान्त का नीतिशास्त्र में महत्व बताते हुए डा० आर० एस० नवलक्खा कहते हैं- “यदि कार्य-कारण सिद्धान्त जगत के तथ्यों की व्याख्या को प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करता है तो फिर उसका नैतिकता के क्षेत्र में प्रयोग करना न्यायिक क्यों नहीं होगा।2।। ___ संसार के सभी मनुष्यों, चाहे वे मोक्षवादी-आस्तिक हैं अथवा भोगवादी-नास्तिक, उनकी यही धारणा है कि मानव के कर्म उसके साथ रहते हैं तथा उसे उनका फल भोगना पड़ता है। इस धारणा का आधार भगवान महावीर के यह कथन हैं- 'प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं तथा 'कर्म सदा कर्ता के साथ चलते हैं,' एवं 'किये --उत्तराध्ययन सूत्र ३१/२ १. एगओ विरई कूज्जा, एगओ य पवत्तण । असंजमे नियत्ति च, संजमे य पवत्तणं ।। २. शंकर्स ब्रह्मवाद, प० २४८ ३. कम्म सच्चा हु पाणिणा । ४. कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं । -उत्तराध्ययनसूत्र ७/२० -उत्तराध्ययनसूत्र १३/१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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