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१२८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
लेकिन नीतिशास्त्र का क्षेत्र विस्तृत है । इसमें अध्यात्मवादी-मोक्षवादी भी आते हैं और नास्तिक भी। नास्तिक मोक्ष की अवधारणा को स्वीकार नहीं करते, ईश्वर को भी नहीं मानते, लेकिन नैतिकता को स्वीकार करते हैं, क्रोध, मान आदि कषायों को वे भी अनैतिक मानते हैं ।
इसीलिए नीतिशास्त्र मोक्ष पुरुषार्थ को कषायों की उपशान्ति के रूप में स्वीकार करके इस प्रत्यय को इसी जीवन में प्राप्तव्य मानता है । निवृत्ति-प्रवृत्ति प्रत्यय
भारतीय नैतिकता को प्रभावित करने वाले नैतिक प्रत्यय हैंनिवृत्ति और प्रवृत्ति। निवृत्ति का सीधा-सादा अर्थ माना जाता है किसी भी प्रकार की क्रिया न करना, इसी प्रकार प्रवृत्ति का अर्थ है-क्रियाकलापों में संलग्न रहना, निष्क्रिय न रहना।
यह दोनों प्रत्यय बहुत प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। वेदों में प्रवृत्तिपरक सूत्रों की अधिकता है तो उपनिषदों में निवृत्तिपरक उपदेशों की बहुलता है। गीता में श्रीकृष्ण ने अनासक्त कर्मयोग का प्रतिपादन करके इन दोनों में समन्वय स्थापित किया है।
सामान्य दृष्टिकोण से प्रवृत्ति और निवृत्ति प्रत्यय परस्पर एक-दूसरे के विपरीत मालूम पड़ते हैं, परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। जीवन के सर्वागीण विकास के लिए दोनों ही आवश्यक हैं।
___ एक व्यक्ति चलता ही जाये, कहीं रुके नहीं, विश्राम नहीं ले तो उसकी क्या दशा होगी, मच्छित होकर बीच में गिर ही पड़ेगा, अपनी मन्जिल तक नहीं पहुँच सकेगा। दूसरा व्यक्ति गमन और विश्राम में उचित समन्वय करता हुआ चलेगा तो सुख से मंजिल पर पहुँच जावेगा।
इसी प्रकार नैतिक जीवन जीने के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का उचित संयोग आवश्यक है।
___ नैतिक प्रत्यय के रूप में निवृत्ति है-अनुचित और अनैतिक कार्यों को न करना । कटशब्द बोलना, व्यर्थ ही किसी को परेशान करना, धनधान्य आदि का अत्यधिक संग्रह करना आदि सभी अनैतिक कार्य हैं । इनसे समाज में अव्यवस्था फैलती है, असन्तोष भड़कता है और अन्त में व्यक्ति स्वयं भी दुखी होता है। अतः ऐसे कार्यों को न करना ही नीतिशास्त्र के अनुसार निवृत्ति प्रत्यय है। इसे दूसरे शब्दों में निषेधात्मक प्रेरणाएँ भी कह सकते हैं।
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