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१०२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भगवान महावीर से एक बार किसी जिज्ञासु ने जिज्ञासा की
"भगवन् ! साधु तथा असाधु किसे कहना चाहिए, इसकी कसौटो क्या है ? भगवान् ने कहा
गुणेहि साहू, अगुणेहिं असाहू __ गिहाहि साहू, गुणमुंचऽअसाहू अर्थात् जो गुणों को ग्रहण करता है, वह साधु (भला-सज्जन) है और जो गुणों (सत्य, शील, सदाचार आदि) का त्याग करता है वह असाधु (असज्जन-बुरा) है । गुण स्वीकार करने में साधुता है और गुणों का त्याग करने में असाधुता।
यहाँ साधु और असाधु का अर्थ व्यापक रूप से ग्रहण करना चाहिए । साधु का अभिप्राय है-सज्जन पुरुष, ऐसा व्यक्ति जिसमें सामाजिक, धार्मिक आदि सभी दृष्टिकोणों से उचित एवं नैतिक मूल्य हों, जिसका चरित्र श्लाघनीय हो । असाधु, इसके विपरीत नैतिक मूल्यों से रहित व्यक्ति होता है, जिसका जीवन और चरित्र उचित नहीं होता।
तो यह है कसौटी ! मूल्यांकन !
चाणक्य ने भी एक श्लोक में मनुष्य की कसौटी बताई है। वह कहता है-"जिस प्रकार घर्षण, छेदन, ताड़न और तापन-चार प्रकार से सोने की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, कुल और कर्म द्वारा मानव की कसौटी अथवा परीक्षा की जाती है।"
चाणक्य के इस कथन में मानवता के मानदण्ड (प्रतिमान) का, मूल्यांकन का स्पष्ट संकेत मिलता है ।
इसी प्रकार मनुष्य अपनी बुद्धि द्वारा अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों का भी मूल्यांकन करता है, कर्तव्याकर्तव्य का सही निर्णय करता है । भोज प्रबन्ध में इस बात को इन शब्दों में प्रगट किया गया है
१ दशवकालिक ६/३/११ २ यथा चतुभिः कनक परीक्ष्यते, निघर्षणच्छेदन-ताप-ताडनैः ।
तथा चतुभिः पुरुषः परीक्ष्यते, श्रुतेन-शीलेन-कुलेन-कर्मणा ॥
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