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६२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन धार्मिक जीवन की पृष्ठभूमि के रूप में नैतिक जीवन को स्वीकार किया। दूसरे शब्दों में नैतिकता ही धार्मिकता की आधारशिला है। . नीतिशास्त्र और दर्शनशास्त्र (Ethics and Philosophy)
विस्तृत दृष्टिकोण से विचार करने पर दर्शनशास्त्र इन पाँच विषयों का समन्वित रूप है-(१) प्रमाणशास्त्र (Epistemology), (२) सृष्टि विज्ञान (Cosmogony and Cosmology), (३) सत्ताशास्त्र (Ontology) (४) तत्वदर्शन अथवा तत्वविद्या (Metaphysics) और (५) ईश्वर तत्व दर्शन (Theclogy)
इन पांचों विषयों में से तत्वविद्या, आत्मदर्शन, ईश्वरदर्शन से नीति का सीधा सम्बन्ध है । नैतिक नियमों के पालन से ही मानव आत्मा शुभात्मा और परमात्मा के समीप पहुंचता है।
नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र की अनेक समस्याओं की विवेचना करता है। ऐसा भी है कि दर्शनशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार नैतिक नियम भी प्रभावित होते हैं, बदलते हैं, परिवर्तित होते हैं। ,
जिन समाजों में आत्मा को अमर माना जाता है और उसके पुनर्जन्म सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है, वहीं नैतिक मूल्यों की स्थापना होती है । अन्यथा तो भारत के चार्वाक और यूनान के एपीक्यूरियनिज्म के अनुसार 'खाना, पीना और ऐश करना' ही मानव जीवन का ध्येय हो जाता है, फिर वहाँ कैसी नैतिकता?
प्राचीन 'रायपसेणियसुत्त'1 में वर्णन आता है। सावत्थी का राजा प्रदेशी पहले कट्टर नास्तिक था, वह न तो पुनर्जन्म मानता था न पूर्वजन्म । अपनी इस मान्यता के कारण वह क्रूर और नृशंस बन गया। प्रजा का उत्पीड़न तथा भोग-विलास में ही उसका जीवन बीत रहा था। किंतु केशी कुमार श्रमण के सत्संग से प्रदेशी राजा की विचारधारा बदल गई। वह परम आस्तिक व धार्मिक हो गया। उसने अपनी संपत्ति, शक्ति, व सत्ता को प्रजा के कल्याण में नियोजित कर दिया। विचारधारा बदलते ही उसका आचरण भी बदल गया। प्रजापीड़क शासक प्रजावत्सल बन गया। इससे सिद्ध होता है कि धार्मिकता के साथ नैतिकता का चोली-दामन का सम्बन्ध
१. प्रदेशी राजा का कथानक जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रसिद्ध है। देखें___ रायपसेणिय सुत्त (जैन)
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