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________________ ८८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन दूसरे प्रकार के हैं । श्री तिलक ने लोकधर्म ( लोकनीति ) में व्यक्ति धर्म ( व्यक्तिगत नैतिकता ) से बहुत से अपवाद माने हैं । इन दोनों मतों का समन्वय इस रूप में हो सकता है कि राष्ट्रों को अधिकाधिक नैतिक नियमों का पालन करना चाहिए किन्तु व्यवहार में राष्ट्र की नैतिकता और व्यक्ति की नैतिकता के मानदण्ड भिन्न-भिन्न हो सकते हैं । व्यक्ति के लिए, समाज के सन्दर्भ में काण्ट के विचार उचित हैं"स्वयं सदा ही नैतिक पूर्णता प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, किन्तु ऐसे साधन जुटाने का प्रयास भी करना चाहिए जिससे अन्य लोग भी पूर्णता प्राप्त करने में सक्षम हो सकें; क्योंकि तुम्हारे लिए यह संभव नहीं है कि अन्य लोगों को पूर्ण बना सको । "2 फिर भी भारतीय दृष्टिकोण से विचार करने पर राजनीति, नीति के विरुद्ध नहीं हो सकती । यद्यपि भारतीय राजनीति में साम, दाम, दण्ड और भेद स्वीकार किये गये हैं और इनमें दाम ( भेंट आदि - जिसे सही शब्दों में रिश्वत (bribery) कहा जा सकता है) और भेद (फूट) दोनों ही नैतिकता की सीमा में नहीं आते; किन्तु इनके प्रयोग के लिए स्पष्ट विधान है कि अन्य सभी उपायों के विफल हो जाने पर तथा राज्य एवं प्रजा की रक्षा के लिए ही इन साधनों का प्रयोग किया जाय । विशद दृष्टिकोण से तो राजनीति, नीति की एक शाखा ही है । नीति के अनुसार शासन व्यवस्था संचालन करने वाले राज्य को धर्मराज्य कहा जाता है; इसका कुछ रूप आधुनिक युग के कल्याणकारी राज्य ( welfare state) की कल्पना में भी निहित है । नीतिशास्त्र और समाजशास्त्र (Ethics and Sociology) समाजशास्त्र, सामाजिक सम्बन्धों, उनके प्रकारों आदि का अध्ययन करता है और नीतिशास्त्र, समाज की सुव्यवस्था किस प्रकार रहे, उन आदर्शों और कर्तव्यों को निर्धारित करता है, अतः स्पष्ट है कि समाज ? Try always to perfect thyself, and try to conduce to the happiness of others by bringing about favourable circumstances, as you cannot make others perfect. Jain Education International For Personal & Private Use Only -Kant www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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