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नीतिशास्त्र की परिभाषा | ६६
आध्यात्मिकता का पुट होते हुए भी इस परिभाषा का केन्द्रबिन्दु 'सामाजिक व्यवस्था' है । लोक अथवा समाज की व्यवस्था उचित रहे, वह नियम-उपनियमों से बँधा रहे, यह इस परिभाषा का मुख्य स्वर है ।
शुक्रनीति में ही इस 'लोक ( अथवा सामाजिक) व्यवस्था' पर जोर देते हुए कहा गया है
"नीति के बिना लोक व्यवहार असम्भव है । '
यह निश्चित है कि लोक अथवा समाज की व्यवस्था, व्यवहार पर ही आश्रित है । व्यवहार यदि एक शब्द में कहा जाय तो व्यवस्था की रीढ़ ( back bone ) है | यदि समाज के सदस्यों का - मानवों का पारस्परिक व्यवहार उचित होगा तभी व्यवस्था भी रह सकेगी । इसीलिए इस परिभाषा में व्यवहार पर अधिक बल दिया गया है ।
यहां आकर शुक्रनीति स्पष्टतः समाजपरक हो गई है, इसमें से आध्यात्मिकता का अंश निकल गया है ।
हितोपदेशकार तो नीति को ही जगत का आधार मानते हैं । उन्होंने यहाँ तक कह दिया है
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" नीति के भंग होने पर समस्त जगत् नष्ट हो जाता है । "2
व्यवहार का अनौचित्य और दूसरे शब्दों में अनीति तथा दुर्नीति जब समाज पर - जगत पर हावी हो जाती हैं तो उसकी व्यवस्था भंग हो जाती है, अपराध बढ़ जाते हैं, धर्म के शब्दों में पाप बढ़ जाते हैं, और फिर परिणाम जगत का नाश ही होता है ।
यह परिभाषा भी सामाजिकतापरक है । समाज की सुव्यवस्था ही इसका ध्येय है ।
इसी प्रकार की परिभाषाएं अन्य अनेक भारतीय मनीषी विद्वानों दी हैं । इनमें आध्यात्मिकता का पुट होते हुए भी सामाजिकता और समाजपरकता प्रमुख रही है । समाज में सुव्यवस्था सभी का अभिप्र ेत रहा है।
भारतीय चिन्तन के दृष्टिकोण से आत्मविरोधी, समाजविरोधी, परिवार - राज्य - राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना तथा सभी प्रकार
१ सर्वलोकव्यवहार स्थितिनित्या विना नहि ।
२ विपन्नायां नीतो सकलमवशं सादति जगत् ।
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- शुक्रनीति १२ / ११
- हितोपदेश २/७५
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