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६८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
प्रबन्ध, आचरण, चाल-चलन, कार्यक्रम, शालीनता, व्यवहार कुशलता, योजना, उपाय आदि सभी नीति शब्द से जाने जा सकते हैं।
__इसी सन्दर्भ को श्री भीखनलाल आत्रेय की परिभाषा व्यक्त करती है
"नीति का अर्थ वे नियम हैं जिन पर चलने से मनुष्य का ऐहिक, आमुष्मिक और सनातन कल्याण हो, समाज में स्थिरता और संतुलन रहे, सब प्रकार से अभ्युदय हो और विश्व में शांति रहे अर्थात् जिन नियमों का पालन करने से व्यक्ति और समाज दोनों का ही श्रेय हो, वे नीति के अन्तर्गत हैं।" ... आत्रेयजी की परिभाषा में आध्यात्मिकता का भी पुट है। वे नीति शास्त्र को श्रेय अर्थात मोक्ष प्राप्ति में साधक मानना चाहते हैं। यह इन पर भारतीय संस्कृति में गर्भित आध्यात्मिकता की छाप है। इतना होने पर भी इनकी परिभाषा में समाजपरकता है। समाज और विश्व में शांति स्थापित रखना वे नीति का कार्य मानते हैं ।
साथ ही इस परिभाषा में 'संतुलन' (समाज में स्थिरता और संतुलन) शब्द जैन आचार्यों द्वारा दी हुई "लोकव्यवहार वर्तकः सम्यक्' का पोषक है । यही शब्द उनकी नीति सम्बन्धी परिभाषा का हार्द है।
इस परिभाषा में व्यक्ति और समाज की पारस्परिक स्थिति का समतोलन और संतुलन रखा गया है ।
शुक्रनीति में भी यही अभिप्राय दर्शित है, वहाँ कहा गया है
“नीतिशास्त्र सभी का उपजीवक है, लोक स्थिति का व्यवस्थापक है । इसलिए वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रदायक है।
शुक्रनीति की यह परिभाषा वैदिक परम्परा का अनुमोदन करती है । वैदिक परम्परा में मानव जीवन के लक्ष्य-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पूरुषार्थ माने गए हैं; और इस परिभाषा के अनसार नीतिशास्त्र इन चारों की प्राप्ति में ही सहायक होता है।
१ आप्टे : संस्कृत-हिन्दी शब्द कोष; देखें-'नीति' शब्द २ भीखनलाल आत्रेय : भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास, पृ० ६१२ ३ सर्वोपजीवक लोकस्थितिकन्नीतिशास्त्रकं । धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यतः ।।
-शुक्रनीति १/२
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