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________________ नीतिशास्त्र की परिभाषा ].६७ जैन दार्शनिकों द्वारा उपरोक्त दी गई परिभाषा की छाया प्लेटो के कथन स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। जैनाचार्यों की यह परिभाषा सभी क्षेत्रों में व्यापक है। मानव के आध्यात्मिक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक, सामाजिक एवं लौकिक व्यवहार सम्बन्धी सभी पहलुओं का इसमें समावेश हो जाता है। नीति और धर्म का एकत्व-अनेकत्व प्रारम्भ में नीति धर्म के साथ जुटकर ही चलती रही। भारत में धर्म का प्रभाव विशेष रहा। धर्म ने मानव-जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित और अनुशासित किया । कर्तव्य, चिन्तन, विचारधारा आदि सभी पर धर्म की छाप रही। यही कारण है-भारत में समाजधर्म, राजधर्म, लोकधर्म, परलोक धर्म आदि धर्म के अनेक रूप और प्रकार प्रचलित हुए । धर्म का दायरा बढ़ता चला गया, जन्म से लेकर मरण तक की मनुष्य की सारी गतिविधियां धर्म के अन्तर्गत समा गईं । संसार-रचना, सृष्टि, परलोक, पुनर्जन्म आदि तो धर्म के हाथ में थे ही और गुप्त विद्याएँ, मंत्र-तंत्र आदि भी इसकी परिधि में थीं। इस विस्तृत दायरे का परिणाम यह हुआ कि धर्म की समवायी विधा विभाजित हुई। ठीक उसी प्रकार जैसे एक पिता के पुत्र अपनी गृहस्थी लेकर अलग-अलग रहने लगते हैं। संयुक्त कुटुम्ब का स्थान एकगृहस्थी का कुटुम्ब लेता है । यह विभाजन स्वाभाविक भी है और सुचारुता की दृष्टि से उचित एवं आवश्यक भी है। ऐसा ही विभाजन धर्म का हुआ। सृष्टि सम्बन्धी बातें तत्व विद्या (Metaphysics). में समाहित हुईं। आचार सम्बन्धी नियम, उपनियम आचारशास्त्र (code of conduct) कहलाया और लोक-व्यवहार सम्बन्धी बातों का वर्गीकरण नीतिशास्त्र (ethics) कहलाया। नीतिशास्त्र में व्यक्ति के सामाजिक जीवन को प्रमुखता मिली। पुरानी परिभाषा गौण हो गई और नीतिशास्त्र सम्बन्धी नई परिभाषाएँ प्रकाश में आईं । इन परिभाषाओं में सामाजिक चिन्तन प्रमुख था। . नीतिशास्त्र की समाजपरक परिभाषाएं (भारतीय चिन्तन) जैसा पूर्व में बताया जा चुका है, शब्द कोष के अनुसार-निर्देशन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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