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भगवान महावीर की नीति- अवधारणाएं | ६३
भगवान महावीर ने स्नान का नया आध्यात्मिक लक्षण देकर इस रूढ़िवादिता को तोड़ा।
ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना भी इस युग में गृहस्थ का नैतिक कर्तव्य बन गया था। इस विषय में भी भगवान महावीर ने नई नैतिक दृष्टि देकर दान से संयम को श्रेष्ठ बताया। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया कि प्रति मास सहस्रों गायों का दान देने से संयम श्रेष्ठ है ।
___ वस्तुतः भगवान महावीर दान के विरोधी नहीं हैं; अपितु उन्होंने तो मोक्ष के चार साधनों-दान, शील, तप और भाव में दान को प्रथम स्थान दिया है; किन्तु इस युग में ब्राह्मणों को दान देना एक रूढ़ि बन गई थी, इस रूढ़िग्रस्तता को ही भगवान ने तोड़कर मानव की स्वतन्त्रता तथा नैतिकता की स्थापना की थी। दान लेने वाला दीन व पुरुषार्थहीन न बने-इसी का ध्यान रखा गया है।
भगवान महावीर के वचन का अनुमोदन धम्मपद में भी मिलता है और गीता के शांकर भाष्य में भी।
उपसंहार
___ इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि भगवान महावीर ने नीति के नये आधारभूत सिद्धान्त निर्धारित किये । संवर, निर्जरा, अनाग्रह, यतना, समता आदि ऐसे घटक हैं जिन पर अन्य विद्वानों की दृष्टि न जा सकी। भगवान महावीर ने इन पर विस्तृत चिन्तन किया है।
उन्होंने अनाग्रह, अनेकांत, यतना, अप्रमाद, समता, विनय आदि नीति के विशिष्ट तत्व मानव को दिये । सामूहिकता को संगठन का आधार बताया और श्रमण एवं श्रावक को इसके पालन का संदेश दिया। संग्रह से दान को श्रेष्ठ बताया और दान से भी संयम (त्याग) को सर्वोत्तम कहायह महावीर का नया व स्वतन्त्र चिन्तन था।
१ उत्तराध्ययन सूत्र १२।४६ २ उत्तराध्ययन सूत्र ६।४० ३ धम्मपद १०६ ४ देखिए, गीता ४।२६-२७ पर शांकर भाष्य ।
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