________________
६२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
जाना और सामायिक के फल की याचना करना, नैतिकता की प्रतिष्ठा के रूप में जानी जायेगी, यहाँ धन और सत्ता का कोई महत्व नहीं है, महत्व है नैतिकता का, पूर्णिया के नीतिपूर्ण जीवन का ।
इसी प्रकार एक मातंग ( चांडाल ) से विद्या सीखते समय श्रेणिक का सिंहासन से नीचे उतरकर उसे ऊँचा आसन देना धन व सत्ता पर ज्ञान एवं विद्या की प्रतिष्ठा को मुद्रांकित किया गया । भगवान महावीर ने जन्म से
वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्त को नकार कर कर्म से वर्णव्यवस्था का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और इस प्रतिपादन नैतिकताको प्रमुख आधार रूप में रखा ।
उस युग
में ब्राह्मणवाद द्वारा प्रचलित यज्ञ के बाह्यस्वरूप को निर्धारित करने वाले लक्षण को भ्रमपूर्ण बताकर नया आध्यात्मिक लक्षण दिया, जिसमें नैतिकता का तत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है ।
(३) मानव की मानसिक जकड़न से मुक्ति - उस युग का मानव दो प्रकार के निबिड़ बन्धनों से जकड़ा हुआ था - (२) ईश्वरकर्तृत्ववाद और (२) सामाजिक, धार्मिक तथा नैतिक रूढ़ियाँ । इन दोनों बंधनों से ग्रस्त - मानव छटपटा रहा था । इन बंधनों का दुष्परिणाम यह भी हुआ कि नैतिकता का ह्रास हो गया और अनैतिकता के प्रसार को खुलकर खेलने का अवसर मिल गया ।
अवतारवाद तथा ईश्वरकर्तृत्ववाद के सिद्धान्त का लाभ उठाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने अपनी विशिष्ट स्थिति बनाली । साथ ही ईश्वर को मानवीय भाग्य का नियन्त्रक और नियामक माना जाने लगा । इससे मानव की स्वतन्त्रता का ह्रास हुआ, नैतिकता में भी गिरावट आई ।
भगवान महावीर ने मानव को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बताकर मानवता की प्रतिष्ठा तो की ही; साथ ही मानवों में नैतिक साहस भी
जगाया ।
इसी प्रकार इस युग में स्नान (बाह्य अथवा जलस्नान ) एक नैतिक कर्त्तव्य माना जाता था, इसे धार्मिकता का रूप भी प्रदान कर दिया गया था, जबकि बाह्यस्नान से शुद्धि मानना सिर्फ रूढ़िवादिता है ।
१ उत्तराध्ययन सूत्र अ० २५, गा० २७ आदि
२ उत्तराध्ययन सूत्र १२ / ४४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org