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भगवान महावीर की नीति-अवधारणाएं | ६१ देहदण्ड रूप पंचाग्नि तप की परम्परा प्रचलित थी। यद्यपि भ० पार्श्वनाथ ने तापस परम्परा के पाखंड को मिटाने का प्रयास किया किन्तु वे अभी तक निःशेष नहीं हुए थे।
__भगवान महावीर ने यज्ञ-याग, श्राद्ध आदि तथा पंचाग्नि तप को अनैतिक (पापमय) कहा और बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है, इसमें पापकारी प्रवृत्तियाँ नहीं होनी चाहिए। उन्होंने विचार और आचार के समन्वय की नीति स्थापित की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि शुभविचारों के अनुसार ही आचरण भी शुभ होना चाहिए तथा शुभ आचरण के अनुरूप विचार भी शुभ हों। यों, उन्होंने नैतिकता के बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों पक्षों का समन्वय करके मानव के सम्पूर्ण (अन्तर्बाह्य) जीवन में नैतिकता की प्रतिष्ठा की।
(२) सामाजिक असमानता की समस्या-तत्कालीन युग में जाति एवं वर्ण के अनुसार मानव-मानव में तो भेद था ही, एक को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझा जाता था; किन्तु इस ऊँच-नीच की भावना में धन भी एक प्रमुख घटक बन गया था, धनी और सत्ताधीशों को सम्मानित स्थान प्राप्त था; जबकि निर्धन सत्ताविहीन लोग निम्नकोटि के समझे जाते थे। शूद्रों, दासों की स्थिति तो बहुत ही बुरी थी, वे तो पशु से भी गये बीते थे।
__ यह स्थिति सामाजिक दृष्टि से तो विषम थी ही, साथ ही इसने नैतिकता को भी निम्नतम स्तर तक पहुंचा दिया था। सही शब्दों में अनैतिकता का ही बोलबाला हो गया था।
भगवान महावीर ने इस अनैतिकता को तोड़ा। उन्होंने अपने श्रमण संघ में चारों वर्गों और सभी जाति के मानवों को स्थान दिया, तथा उनके लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया।
. चांडाल साधक हरिकेशी की यज्ञकर्ता ब्राह्मण रुद्रदेव के समक्ष उच्चता दिखाकर नैतिकता को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित किया । इसी प्रकार चन्दनबाला के प्रकरण में दासप्रथा को नैतिक दृष्टि से मानवता के लिए हानिकर सिद्ध किया । मगधसम्राट श्रेणिक' का निर्धन पूणिया के घर
२ महावीर चरियं
१ उत्तराध्ययन सूत्र, १२वा हरिकेशीय अध्ययन ३ श्रेणिक चरित्र
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