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________________ भगवान महावीर की नीति-अवधारणाएं | ५६ नीति के सन्दर्भ में भगवान ने इसे श्रमण नीति और श्रावक नीति के रूप में वर्गीकृत किया। श्रावक चूंकि समाज में रहता है, सभी प्रकार के वर्गों के व्यक्तियों से इसका सम्बन्ध रहता है, अतः इसके लिए समन्वय नीति का विशेष प्रयोजन है। साथ ही धर्माचरण का भी महत्त्व है। उसे लौकिक विधियों का भी पालन करना आवश्यक है । इसीलिए कहा गया है सर्व एव हि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न ब्रतदूषणम् ॥ -सोमदेव सूरि : उपासकाध्ययन (जैनों को सभी लौकिक विधियाँ उसी सीमा तक प्रमाण हैं, जब तक सम्यक्त्व की हानि न हो और व्रतों में दोष न लगे।) अतः श्रावक व्रत रूपी सिक्के के दो पहलू होते हैं-(१) धर्मपरक और (२) नीतिपरक । श्रावक व्रतों के अतिचार भी इसी रूप में संदर्भित हैं। उनमें भी नीतिपरक तत्त्वों की विशेषता है । ठाणांग सूत्र में जो अनुकंपा दान, संग्रहदान, भयदान, कारुण्यदान, लज्जादान, गौरवदान, अधर्मदान, धर्मदान, करिष्यतिदान और कृतदानयह दश प्रकार के दान' बताये गये हैं, वे भी प्रमुख रूप से लोकनीति परक ही हैं । उनकी उपयोगिता लोकनीति के सन्दर्भ में असंदिग्ध है। इसी प्रकार ठाणांग सूत्र में वर्णित दस धर्मों में से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म आदि का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नीति से है। १ श्रावक व्रत और उनके अतिचारों का नीतिपरक विवेचन इसी पुस्तक के 'नैतिक उत्कर्ष' अध्याय में किया गया है। २ दसविहे दाणे पण्णत्ते, तंजहा--- अणुकंपा संगहे चेव, भये कालुणिये इ य । लज्जाए गारवेण य, अहम्मे पुण सत्तमे । धम्मे य अठ्ठमे वुत्ते, काहीइ य कतंति य । --ठाणांग १०/७४५ ३ दसविहे धम्मे पण्णत्ते तं जहा-- १. गामधम्मे २. नगरधम्मे ३. रट्ठधम्मे ४. पासंडधम्मे ५. कुलधम्मे ६. गणधम्मे ७. संघधम्मे ८. सुयधम्मे ६. चारित्तधम्मे १०, अत्थिकायधम्मे । -ठाणांग, १०/७६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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