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५८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
लेकिन भ० महावीर ने स्वहित और लोकहित को परस्पर विरोधी नहीं माना। इसका कारण यह है कि भगवान महावीर की दृष्टि विस्तृत आयाम तक पहुँची हुई थी। इन्होंने स्वहित और लोकहित का संकीर्ण अर्थ नहीं लिया । स्वहित का अर्थ स्वार्थ और लोकहित का अर्थ परार्थ स्वीकार नहीं किया । अपितु स्वहित में परहित और परहित में स्वहित सन्निहित माना। इसलिए वे स्वहित और लोकहित का सुन्दर समन्वय जनता जनार्दन और विद्वानों के समक्ष रख सके ।
उन्होंने अपने साधुओं को स्व-परकल्याणकारी बनने का सन्देश दिया । इसी कारण जैन श्रमणों का यह एक विशेषण बन गया । श्रमणजन अपने हित के साथ लोकहित भी करते हैं।
भगवान की वाणी लोकहित के लिए है।। पाँचों महाव्रत सभी प्रकार से लोकहित के लिए है। अहिंसा भगवती लोकहितकारिणी है । णमोत्थुणं सूत्र में तो भगवान को लोकहितकारी बताया ही है ।
भगवान स्वयं तो अपना हित कर ही चुके होते हैं किन्तु अरिहन्तावस्था की सभी क्रियाएँ, उपदेश आदि लोकहित ही हैं ।
साधु जो निरंतर (नवकल्पी) पैदल ही ग्रामानुग्राम विहार करते हैं, उसमें भी स्वहित के साथ लोकहित भी सन्निहित है।
श्रमण साधुओं के समान ही श्रावक वर्ग और साधारण जनता भी जो भगवान महावीर की आज्ञापालन में तत्पर रहते हैं, वे भी स्वहित के साथ लोकहित को भी प्रमुखता देते हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भगवान महावीर द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों में लोकहित को सदैव ही उच्चस्थान प्राप्त हुआ है और उनका अनुयायी वर्ग स्वहित के साथ-साथ लोकहित का भी अविरोधी रूप से ध्यान रखता है तथा इस नीति का पालन करता है।
भ० महावीर ने इन विशिष्ट नीतियों के अतिरिक्त सत्य, अहिंसा, करुणा, जीव मात्र पर दया आदि सामान्य नीतियों का भी मार्ग प्रशस्त किया तथा इन्हें पराकाष्ठा तक पहुंचाया।
१ प्रश्नव्याकरण सूत्र, स्कंध २, अ० १, सू० २१ २ प्रश्नव्याकरण सूत्र स्कंध २, अ० १, सू० ३ ३ शक्रस्तव-आवश्यक सूत्र
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