SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन कालात्ययापदिष्ट (बाधित) है। क्योंकि शरीर से अतिरिक्त आत्मा नाम का पक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा बाधित होता है। इसलिए प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित पक्षसहित के प्रयोग में प्रयोजित किया हुआ हेतु कालात्ययापदिष्ट है । कहने का मतलब यह है कि प्रत्यक्ष से शरीर से अतिरिक्त आत्मा जैसी कोई चीज दिखाई देती नहीं है, इसलिए प्रत्यक्षप्रमाण से शरीरातिरिक्त आत्मा का बाध होता है। इसलिए आत्मा की सत्ता की सिद्धि में प्रयोजित किया हुआ हेतु कालात्ययापदिष्ट बनता है। जिस हेतु का साध्यरुप विषय पक्ष में प्रमाणान्तर से बाधित होता है वह हेतु कालात्ययापदिष्ट कहा जाता है । ६७ / ६९० उपरांत लिंग-लिंगि के संबंध के स्मरणपूर्वक अनुमान होता है। जैसे कि, कोई व्यक्ति पहले महानसादि धू (लिंग) और अग्नि (लिंगि) के अन्वय- व्यतिरेकवाले अविनाभाव को प्रत्यक्ष से ग्रहण करके उसके बाद के काल में कहीं जंगल में पर्वत के शिखरादि के उपर गगनावलंबी धूमरेखा को देखकर पहले ग्रहण किये हुए धूम - अग्नि के संबंध का स्मरण करता है कि - "जहां जहां धूम होता है, वहां वहां वह्नि (अग्नि) होती है, जैसे कि महानसादि में, और यहां धूम दिखता है, इसलिए वह्नि भी यहां होना चाहिए। इस अनुसार धूमग्रहण तथा संबंध के स्मरण द्वारा वहां प्रमाता के द्वारा अग्नि का अनुमान होता है। (परंतु इस अनुसार से लिंगि ऐसे आत्मा के साथ कोई भी लिंग का प्रत्यक्ष से संबंध सिद्ध नहीं है । अर्थात् जैसे अग्नि नाम लिंग के साथ धूम नाम के लिंग का प्रत्यक्ष से संबंध महानसादि में सिद्ध है । उसी तरह से आत्मा नाम के लिंग के साथ किसी भी लिंग का प्रत्यक्ष से संबंध किसी भी स्थान पे सिद्ध नहीं है, कि जिससे उस संबंध के अनुस्मरण से तथा पुनः उस लिंग के दर्शन से "जीव होना चाहिए" ऐसा ज्ञान हो । उपरांत यदि जीव (लिंगि) और लिंग का संबंध प्रत्यक्ष से सिद्ध हो तो जीव का प्रत्यक्ष ही हो जाने की आपत्ति आयेगी और इसलिए (लिंग के स्मरण - दर्शन से जीव का अनुमान करने की जरुरत नहीं रहने से) अनुमान प्रमाण व्यर्थ बन जायेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष से ही जीव की सिद्धि हो जाने से अनुमान की क्या जरुरत है ? । 1 तथा "जैसे सामान्यतोदृष्ट अनुमान से सूर्य की गति सिद्ध होती है । वैसे उस अनुमान से जीव की भी सिद्धि होती है ।" ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। क्योंकि जैसे देवदत्त की देशान्तरप्राप्ति गतिपूर्वक है, वैसे सूर्य की देशान्तरप्राप्ति को देखने से सूर्य की गति का अनुमान होता है। यहाँ दृष्टांत ऐसे देवदत्त धर्मी में सामान्य से देशान्तरप्राप्ति गतिपूर्विका है, ऐसा प्रत्यक्ष से निश्चित हुआ है और सूर्य में भी गतिपूर्विका को देशान्तरप्राप्ति द्वारा ही प्रमाता द्वारा सिद्ध होता है। अर्थात् वहाँ सामान्यतोदृष्ट अनुमान से सूर्य की गति का अनुमान किया जाये तो युक्त है, परंतु जीव की सत्ता की सिद्धि में कहीं भी दृष्टांत में जीवकी सत्ता के साथ अविनाभूत हेतु प्रत्यक्ष से नहीं दिखाई देता नहीं है । इसलिए सामान्यतोदृष्ट अनुमान से भी आत्मा की सत्ता की सिद्धि होती नहीं है । तथा नाप्यागमगम्य आत्मा । अविसंवादिवचनाप्तप्रणीतत्वेन ह्यागमस्य प्रामाण्यम् । न चैवंभूतमविसंवादिवचनं कंचनाप्याप्तमुपलभामहे यस्यात्मा प्रत्यक्ष इति । अनुपलम्भमानाश्च For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy