SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८/६९१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन कथमात्मानं विप्रलभेमहि । किं चागमाश्च सर्वे परस्परविरुद्धप्ररूपिणः । ततश्च कः प्रमाणं कश्चाप्रमाणमिति संदेहदावानलज्वालावलीढमेवागमस्यप्रामाण्यम् । ततश्च नागमप्रमाणा-दप्यात्मसिद्धिः ३ । तथा नोपमानप्रमाणोपमेयोऽप्यात्मा । तत्र हि यथा गौस्तथा गवय इत्यादाविव सादृश्यमसंनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति । न चात्र त्रिभुवनेऽपि कश्चनात्मसदृश पदार्थोऽस्ति यदर्शनादात्मानमवगच्छामः । कालाकाशदिगादयो जीवतुल्या विद्यन्त एवेति चेत् ? न, तेषामपि विवादास्पदी भूतत्वेन तदंहिबद्धत्वात् ४। तथार्थापत्तिसाध्योऽपि नात्मा । नहि दृष्टः श्रुतो वा कोऽप्यर्थ आत्मानमन्तरेण नोपपद्यते, यबलात् तं साधयामः । ततः सदुपलम्भकप्रमाणविषयातीतत्वात्तत्प्रतिषेधसाधकाभावाख्यप्रमाणविषयीकृत एव जीव इति स्थितम । व्याख्या का भावानुवाद : तथा आत्मा आगमगम्य भी नहीं है। अविसंवादि वचनप्रयोगो को प्रयोजित करता हुआ आप्तपुरुष प्रणीत आगम ही प्रमाणभूत बनता है। ऐसा कोई अविसंवादि वचनप्रयोग करनेवाले आप्तपुरुष ही प्राप्त होते नहीं है कि जिन को आत्मा प्रत्यक्ष हो । अर्थात् जिन को आत्मा प्रत्यक्ष है और उसकी सत्ता की सिद्धि के लिए अविसंवादि वचनप्रयोग करते है, वैसे कोई भी आप्तपुरुष प्राप्त होते ही नहीं है। और ऐसे आप्तपुरुषो के बिना इस आत्मा का स्वीकार किस तरह से कर सकेंगे? उपरांत सभी आगम परस्पर विरुद्ध प्ररुपणा करते है। इसलिए कौन सा आगम प्रमाणभूत है और कौन सा आगम अप्रमाणभूत है? उसमें संदेह होने से आगम का प्रामाण्य संदेहरुपी दावानल की ज्वाला से घिर गया है। अर्थात् कोई भी आगम प्रमाणभूत बनता नहीं है। इसलिए आगमप्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि होती नहीं है। तथा उपमानप्रमाण से भी आत्मा उपमेय बनता नहीं है। अर्थात् उपमानप्रमाण से भी आत्मा की सत्ता सिद्ध होती नहीं है। क्योंकि जैसे “यथा गौस्तथा गवय" इत्यादि में परोक्ष अर्थ में सादृश्यबुद्धि उत्पन्न होती है। अर्थात् जब गाय और गवय दोनो प्रत्यक्ष के विषय हो, तब "गाय के समान गवय होता है।" इस वाक्य का स्मरण करने से तथा गवय को सामने देखने से परोक्ष ऐसी गाय में सादृश्यबुद्धि उत्पन्न होती है। परंतु तीन लोक में आत्मा की समान कोई पदार्थ नहीं है कि जिसके दर्शन से (सादृश्य ज्ञान द्वारा परोक्ष अर्थ ऐसे) आत्मा का ज्ञान हो सके। शंका : काल, आकाश, दिशा, अमूर्तपदार्थ अप्रत्यक्ष है। फिर भी उसकी सत्ता स्वीकार की गई है, तो कालादि की समान आत्मा अप्रत्यक्ष है, फिर भी उसकी सत्ता का क्यों स्वीकार नहीं करते हो? समाधान (चार्वाक): काल, आकाश और दिशा आदि सभी अमूर्त पदार्थ आत्मा के समान अप्रत्यक्ष है यह बात विवादास्पद होने से अनिश्चित है। इसलिए जीव के पैर के साथ कालादि के पैर भी बंध गये हुए है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy