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________________ ६६/६८९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन की उत्पत्ति होती है वह भी सिद्ध होता है। इस अनुसार से आत्मा प्रत्यक्षप्रमाण का प्रमेय (विषय) बनता ही नहीं है और इसलिए जगत में आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। __ अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है - "आत्मा नहीं है, क्योंकि वह अत्यंत अप्रत्यक्ष है, जो अत्यंत अप्रत्यक्ष होता है, वह (वस्तु) होती नहीं है। जैसेकि, आकाशपुष्प । और जो होता है उसे प्रत्यक्ष से ग्रहण किया जाता ही है। जैसेकि, घट । यद्यपि अणु भी अप्रत्यक्ष है परंतु घटादि कार्यरुप में परिणमित हुए वे परमाणु प्रत्यक्षता को प्राप्त करते है। परंतु आत्मा कभी भी प्रत्यक्षभाव को प्राप्त नहीं करता है । इस प्रकार अनुमान प्रयोग के हेतु में ग्रहण किये हुए "अत्यंत" विशेषण से परमाणुओ के साथ व्यभिचार नहीं आता है। ___तथा नाप्यनुमानं भूतव्यतिरिक्तात्मसद्भावे प्रवर्तते, तस्याप्रमाणत्वात्, प्रमाणत्वे वा प्रत्यक्षबाधितपक्षप्रयोगानन्तरं प्रयुक्तत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । शरीरव्यतिरिक्तात्मपक्षो हि प्रत्यक्षेणैव बाध्यते । किंच लिङ्गलिङ्गिसंबन्धस्मरणपूर्वकं ह्यनुमानम् । यथा-पूर्व-महानसादावग्निधूमयोलिङ्गि लिङ्ग योरन्वयव्यतिरेकवन्तमविनाभाव-मध्यक्षेण गृहीत्वा तत उत्तरकालं क्वचित्कान्तार-पर्वतनितम्बादौ गगनावलम्बिनीं धूमलेखामवलोक्य प्राग्गृहीतसंबन्धमनुस्मरति । तद्यथा-यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निमद्राक्षं यथा महानसादौ, धूमश्चात्र दृश्यते तस्माद्वह्निनापीह भवितव्यमित्येवं लिङ्गग्रहणसंबन्धस्मरणाभ्यां तत्र प्रमाता हुतभुजमवगच्छति । न चैवमात्मना लिङ्गिना सार्धं कस्यापि लिङ्गस्य प्रत्यक्षेणः संबन्धः सिद्धोऽस्ति, यतस्तत्संबन्धमनुस्मरतः पुनस्तल्लिङ्गदर्शनाज्जीवे स प्रत्ययः स्यात् । यदि पुनर्जीवलिङ्गयोः प्रत्यक्षतः संबन्धसिद्भिः स्यात्, तदा जीवस्यापि प्रत्यक्षत्वापत्त्यानुमानवैयर्थ्यं स्यात्, तत एव जीवसिद्धेरिति । न च वक्तव्यं सामान्यतोदृष्टा-नुमानादादित्यगतिवज्जीवः सिध्यति, यथा गतिमानादित्यो देशान्तरप्राप्तिदर्शनात्, देवदत्तवत् इति । यतो हन्त देवदत्ते दृष्टान्तधर्मिणि सामान्येन देशान्तरप्राप्तिर्गतिपूर्विका प्रत्यक्षेणैव निश्चिता सूर्येऽपि तां तथैव प्रमाता साधयतीति युक्तम् । न चैवमत्र क्वचिदपि दृष्टान्ते जीवसत्त्वेनाविनाभूतः कोऽपि हेतुरध्यक्षेणोपलक्ष्यत इत्यतो न सामान्यतोदृष्टादप्यनुमानात्तद्गतिरिति २ । व्याख्या का भावानुवाद : (चार्वाक अपनी चर्चा आगे चलाता है।) अनुमान प्रमाण से भी भूत से अतिरिक्त आत्मा की सत्ता सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि अनुमान प्रमाणरुप ही नहीं है। (चार्वाको ने केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण को ही माना है। क्योंकि जगत में जो प्रत्यक्ष दिखता है वही सत् है। उसके सिवा सभी असत् है, ऐसी उन लोगो की मान्यता है।) अथवा अनुमान को प्रमाण मान ले तो भी आत्मा की सिद्धि के लिए प्रयोजित किया हुआ हेतु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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