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________________ ६२/६८५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन अभिन्न भी नहीं है। परंतु भिन्नाभिन्नत्वरुप जात्यन्तर है। ___ यदि ज्ञानादिधर्मो से जीव (सर्वथा) भिन्न हो तो "मैं जानता हूं", "मैं देखता हूं", "मै ज्ञाता हूं", "मैं दृष्टा हूं", "मैं सुखी हूं", "मैं दुःखी हूं", "मैं भव्य हूं" इत्यादि (ज्ञानादिधर्म और जीव के भेदका) प्रतिभास न होता और सभी जीवो को वह भेद का प्रतिभास होता ही है। तथा ज्ञानादिधर्मो से आत्मा (सर्वथा) अभिन्न हो तो, यह धर्मी है और ये धर्म है। ऐसे प्रकार की भेदबुद्धि नहीं होगी। और ऐसी भेदबुद्धि तो होती ही है। अथवा ज्ञानादिधर्मो से आत्मा को अभिन्न मानोंगे तो ज्ञानादि सर्वधर्मो का ऐक्य हो जायेगा, क्योंकि एक जीव से वे धर्म अभिन्न है। तथा "मेरा ज्ञान, मेरा दर्शन, मेरा सुख" इत्यादि ज्ञानादिधर्मो का परस्पर भेद, प्रतीत होता ही है। यदि ज्ञानादिधर्मो से आत्मा को अभिन्न मानोंगे तो ऐसी प्रतीति नहिं हो सकेगी। इसलिए जीव को ज्ञानादिधर्मो से भिन्नाभिन्न मानना चाहिए। इसके द्वारा धर्म और धर्मी को एकांत से भिन्न मानते हुए वैशेषिको के मत का तथा धर्म और धर्मी को एकांत से अभिन्न मानते हुए बौद्ध के मत का खंडन हो जाता है । बौद्धो ज्ञानक्षण की परंपरा को आत्मा मानते है, इसलिए बोद्धोने भी आत्मा को धर्मी के रुप में स्वीकार किया है। विविध प्रकार से वर्तन करना उसे विवृत्ति कहा जाता है। अर्थात् देव, मनुष्य इत्यादि पर्यायो का अनुसरण करना उसे विवृत्ति कहा जाता है। ऐसा विवृत्तिवाला आत्मा है। इसके द्वारा भवांतरगामि आत्मा का निषेध करते हुए चार्वाक के मत का तथा आत्मा को (एक स्वरुप के स्थिर रहनेवाला, उत्पत्ति और विनाशरहित) कूटस्थनित्य माननेवाले नैयायिक इत्यादि के मत का भी खंडन हो जाता है। आत्मा शुभाशुभकर्मो का कर्ता है। तथा स्वयं किये हुए कर्मो के सुखादिफल का साक्षात्भोक्ता है। "च" समुच्चयार्थक है। "आत्मा कर्म का कर्ता और भोक्ता है।" ऐसे दो विशेषण के ग्रहण से आत्मा को अकर्ता माननेवाले तथा आत्मा को उपचार से भोक्ता माननेवाले सांख्यो के मत का खंडन हो जाता है। चैतन्यस्वरुपवाला आत्मा है । अर्थात् साकार (ज्ञान) और निराकार (दर्शन) स्वरुप आत्मा है । इस विशेषण से आत्मा को ज्ञानशून्य माननेवाले नैयायिको इत्यादि के मत का उच्छेद होता है। अर्थात् ज्ञानशून्य जड स्वरुप नैयायिकादि संमत आत्मा का व्यवच्छेद होता है। ऐसे विशेषण से युक्तजीव जैनदर्शन में कहा गया है । इस अनुसार से यहीं (अंत में) संबंध करना । अत्र चार्वाकाश्चर्चयन्ति यथा-इह कायाकारपरिणतानि चेतनाकारणभूतानि भूतान्येवोप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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