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________________ ६०/६८३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ४८-४९, जैनदर्शन के निराकरण के लिए पृथक् उपादान करके उसकी सिद्धि की है। इसलिए पुण्यादिका पृथक् उपादान अदुष्ट है) आश्रव-बंध संसार का तथा संवर-निर्जरा मोक्ष का प्रतिपादन करने में उपयोगी होने से उनका पृथक् उपादान भी अदुष्ट है। जिस अनुसार से संवर-निर्जरा मोक्ष के कारण है। आश्रव कर्मबंध का कारण है। पुण्य-पापरुप दोनो कर्मबंध संसार का कारण है, उस अनुसार से आगम से स्वीकार करना चाहिए । अर्थात् आगम में पुण्य, पाप, आश्रव, बंध को संसार के कारण कहा है और संवर-निर्जरा को मोक्ष के कारण कहा है, उसे स्वीकार करना चाहिए। ___ उसमें शुभकर्मो के पुद्गलो को पुण्य कहा जाता है, अशुभकर्म के पुद्गलो को पाप कहा जाता है। जिससे कर्म आता है वह आश्रव । वह मन-वचन-काया के व्यापारस्वरुप और पुण्य-पाप के कारण रुप ऐसा दो प्रकार का है। आश्रव के निरोध को संवर कहा जाता है। गुप्ति, समिति, दसविध यतिधर्म, अनुप्रेक्षा (बारह भावना) परिषह, चारित्र, आश्रवका प्रतिबंध करनेवाले होने से (गुप्ति इत्यादि को) संवर कहा जाता है। वह संवर दो प्रकार का है। (१) सर्वसंवर, (२) देशसंवर । (चौदहवें गुणस्थानक पे सर्वसंवर होता है।) ___ मन-वचन-काया के व्यापार के निमित्त से सकषायि आत्मा का कर्मपुद्गल के साथ का संश्लेष (संबंध) विशेष को बंध कहा जाता है। वह बंध सामान्यतः एक प्रकार का होने पर भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग (रस) और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। वे एक एक के ज्ञानावरणीयादि मूलप्रकृति के भेद से आठ प्रकार है। मतिज्ञानावरणीयादि उत्तरप्रकृति के भेद से अनेक प्रकार (= एक सौ अठ्ठावन प्रकार) है। __यह बंध किसी तीर्थंकरत्वादि फल का सर्जन करता हो तब प्रशस्त है और दूसरा नरकादि फल का सर्जन करता होने से अप्रशस्त है तथा प्रशस्त और अप्रशस्त आत्मा के अध्यवसायों से (निश्चयो से) पैदा हुआ कर्म क्रमशः सुख-दुःखरुप फल का सर्जन करता है। ___ आत्मा के उपर चिपके हुए कर्म को गिराने में कारणरुप निर्जरा बारह प्रकार के तप स्वरुप है। उत्कृष्ट निर्जरा शुक्लध्यानरुप है। क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के अ. ९।३ में कहा है कि तप से निर्जरा होती है और ध्यान अभ्यंतरतपस्वरुप है। सभी बंधन से सर्वथामुक्त और सहजस्वरुप के प्रापक आत्मा के लोक का अंत में (सिद्धशिला के उपर) हुए अवस्थान को मोक्ष कहा जाता है। इसलिए शास्त्र में कहा है कि बंध के उच्छेद से मोक्ष होता है। अथ शास्त्राकार एव तत्त्वानि क्रमेण व्याख्याति, तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्रथम जीवतत्त्वमाह - अब शास्त्रकारपरमर्षि ही क्रमशः तत्त्वो की व्याख्या करते है। "(द्वारगाथामें) जिस अनुसार से उद्देश हो, उस क्रमानुसार निर्देश करना चाहिए।" इस न्याय से प्रथम जीवतत्त्व को कहते है। (मू.श्लो.) तत्र ज्ञानादिधर्मेभ्यो भिन्नाभिन्नो विवृत्तिमान् । शुभाशुभकर्मकर्ता भोक्ता कर्मफलस्य च ।।४८ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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