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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४७, जैनदर्शन भागप्रदेशभेदेन चतुर्धा E-80, पुनरेकैको ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिभेदादष्टधा E-81, पुनरपि मत्यावरणादितदुत्तरप्रकृतिभेदादनेकविधः । अयं च कश्चित्तीर्थकरत्वादिफलनिर्वर्तकत्वात्प्रशस्तः, अपरश्च नारकादिफलनिर्वर्तकत्वादप्रशस्तः, प्रशस्ताप्रशस्तात्मपरिणामोद्भूतस्य कर्मणः सुखदुःखसंवेदनीयफलनिर्वर्तकत्वात् ७ । आत्मसंपृक्तकर्मनिर्जरणकारणं निर्जरा द्वादशविधतपोरूपा । सा चोत्कृष्टा शुक्लध्यानरूपा “ तपसा निर्जरा च " [ तत्त्वार्थाधिगम० ९, ३] इति वचनात्, ध्यानस्य चान्तरतपोरूपत्वात् ९ । विनिर्मुक्ताशेषबन्धनस्य प्राप्तनिजस्वरूपस्यात्मनो लोकान्तेऽवस्थानं मोक्षः, 'बन्धविप्रयोगो मोक्षः' इति वचनात् ९ । एतानि नवसंख्यानि तत्त्वानि तन्मते - जैनमते ज्ञातव्यानि ।। ४७ ।। व्याख्या का भावानुवाद : चैतन्य (चेतना) जीव का लक्षण है। अचैतन्य अजीव का लक्षण है। अजीव के पांच प्रकार है । (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल, (५) पुद्गलास्तिकाय । है वे जीव और अजीव दो ही तत्त्वो में जगत्वर्ती सभी भावो का ( पदार्थोका) अंतर्भाव हो जाता इसलिए ही वैशेषिको द्वारा माने गये ज्ञानादि, तथा रुपादिगुण, उत्क्षेपणादि पांच कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, जीव और अजीव से स्वतंत्ररुप से (अतिरिक्त रुप से) अपना अस्तित्व रखते नहीं है। वे उन दोनो के स्वभावरुप ही है । अर्थात् उन सभी का जीव - अजीव पदार्थो में समावेश हो जाता है। क्योंकि (कोई भी प्रमाण) गुणआदि पदार्थो को द्रव्य से सर्वथा भिन्नरुप में जान सकता नहीं है। क्योंकि द्रव्य के बिना गुण का उपलंभ होता नहीं है । इसलिए वह द्रव्यात्मक है । यदि गुण आदि पदार्थ को द्रव्य माना जाये तो जिस तरह से गुणरहित द्रव्य का अभाव हो जाता है। वैसे ही द्रव्यरुप आश्रय के बिना गुणादि भी निराधार हो जाने के कारण असत्प बन जाने की आपत्ति आयेगी । ५९ / ६८२ बौद्धो के द्वारा परिकल्पित दुःखादि चार तत्त्वो को जीव और अजीव से पृथक् जातिपन से नहि कहना चाहिए, क्योंकि सर्वजगत जीव-अजीव ऐसी दो राशि द्वारा व्याप्त है तथा जीव - अजीव दो राशि से अव्याप्त पदार्थ खरगोस के सिंगकी तरह भ्रान्त है, असत् है । पूर्वपक्ष: तो फिर आप लोगो ने जीव- अजीव दो राशि से पुण्य-पापादि का पृथक् उपादान किया है । वह युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि आप के मतानुसार दो राशि से सर्व जगत व्याप्त है । (E-80-81 ) - तु० पा० प्र० प० । 1 उत्तरपक्ष (जैन) : ऐसा ना कहना । (क्योंकि पुण्य-पापादि का जीव - अजीव दो राशि में समावेश हो ही जाता है। संवर, निर्जरा, मोक्ष का जीवराशि में समावेश हो जाता है । पाप-पुण्य, आश्रव, बंध का समावेश अजीव में होता है ।) तो भी लोगो को पुण्य और पाप के विषय में विप्रतिपत्ति (संदेह) है। संदेह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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