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________________ ५६/६७९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन की पूर्णता कारणरुप है। उसी ही तरह से उसमें सम्यग्दर्शनादि भी परंपरा से कारण है। इसलिए अनंतवीर्य की विद्यमानता में भी मुक्ति के प्रति साक्षात् व्युपरतक्रिया और परंपरा से सम्यग् दर्शनादिगुणो की अपेक्षा है। उसी ही तरह से अनंतवीर्य की विद्यमानता में भी केवलि को लम्बे काल तक जीने में आहारग्रहण की अपेक्षा होती ही है । इसलिए अनंतवीर्य की विद्यमानता में भी केवलि के आहारग्रहण में कोई विरोध नहीं है। तथा जिस अनुसार से केवली को विश्राम के लिए देवछंदा में आराम करना और चलना, बैठना, उठना इत्यादि क्रियाओ की अपेक्षा होती है। वैसे आहाररुप क्रिया की अपेक्षा में कोई विरोध नहीं है। उपरांत "बलवत्तरवीर्य के सद्भाव में अल्पभूख होती है -" "ऐसे नियम में भी व्यभिचार है। क्योंकि बलवत्तरवीर्य के सद्भाव में भी बहोत भूख हो ऐसा बहोत बार दिखाई देता है। किं चागमोऽपि केवलिनो भुक्तिं प्रतिपादयति । तथाहि-तत्त्वार्थसूत्रम् (९,११) । “एकादश जिने” इति । व्याख्या-एकादश परीषहाः क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्यावधरोगतृण-स्पर्शमलाख्या जिने केवलिनि भवन्ति, तत्कारणस्य वेदनीयस्याद्यापि विद्यमानत्वात्-70 । न च कारणानुच्छेदे कार्यास्योच्छेदः संभाव्यते, अतिप्रसक्तेः । अत एव केवलिनि क्षुद्वेदनीयपीडा संभाव्यते, किं त्वसावनन्तवीर्यत्वान्न विह्वलीभवति, न चासौ निष्ठितार्थो निःप्रयोजनमेव पीडां सहते, न च शक्यते वक्तुं “एवंभूतमेव -71 भगवतः शरीरं, यदुत क्षुत्पीडया न बाध्यते” इति, अनुमानेन तस्यास्तत्र सिद्धत्वात् । तथाहि केवलिशरीरं क्षुधादिना पीड्यते शरीरत्वात्, अस्मादाद्यधिष्ठितशरीरवत् । तथा यथा तच्छरीरं स्वभावेन प्रस्वेदादिरहितं एवं प्रक्षेपाहाररहितमपीत्यपकर्णनीयमेव, अप्रमाणकत्वात् । तदेवं E-72देशोनपूर्वकोटिकालस्य केवलिस्थितेः संभवादौदारिकशरीरस्थितेश्च यथायुष्कं कारणमेवं प्रक्षेपाहारोऽपि । तथाहि 73तैजसशरीरेण मृदूकृतस्या-भ्यवहतस्य स्वपर्याप्त्या परिणामितस्योत्तरोत्तरपरिणामक्रमेणौदारिकशरीरिणामनेन प्रकारेण क्षुदुद्भवो भवति । वेदनीयोदये चेयं समग्रापि सामग्री भगवति केवलिनि संभवति । ततः केन हेतुनासौ न भुङ्क्त ? इति । न च E-74घातिचतुष्टयस्य क्षुद्वेदनीयं प्रति सहकारिकारणभावोऽस्ति, येन तदभावात्तदभाव इत्युच्यते । इति सिद्धा केवलिभुक्तिः । तथा प्रयोगश्चात्र-केवलिनः प्रक्षेपाहारो भवति कवलाहारकेवलित्व-योरविरोधात्, सातवेदनीयवदिति । इति केवलिभुक्तिव्यवस्थापनस्थलमिति ।। ४५-४६ ।। (E-70-71-72-73-74)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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