SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन ५७/६८० व्याख्या का भावानुवाद : उपरांत आगम में भी केवलज्ञानि के भोजनग्रहण का प्रतिपादन किया है। तत्त्वार्थ सूत्र अ. ९।११ में कहा है कि, तेरहवें गुणस्थानक में रहे हुए पे केवलज्ञानि को ग्यारह (११) परीषहो का उदय होता है। अर्थात् क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश, मशक, चर्या-शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल ये ग्यारह परीषह केवलज्ञानि को होते है। क्योंकि वे ग्यारह परीषहो के उदय में कारणरुप वेदनीयकर्म का उदय अभी कारण की विद्यमान है तथा विद्यमानता में कार्य का अभाव होना संभवित नहीं है। अन्यथा (अन्वयव्यभिचाररुप) अतिव्याप्ति आयेगी। इसलिए ही केवलज्ञानि में क्षुधावेदनीयजन्य पीडा संभवित है। परंतु केवलज्ञानि में अनंतवीर्य होने से भूख की पीडा व्याकुल करती नहीं है। ___ उपरांत केवलि कृतकृत्य होने से प्रयोजन बिना ही पीडा सहता है, वैसा भी नहि कहना। क्योंकि केवलि कृतकृत्य होने पर भी क्षुधावेदनीयकर्म के उदय में पीडा का अनुभव तो होता ही है। परंतु अनंतवीर्य के कारण वह पीडा हमको जैसे व्याकुल करती है उसी तरह से केवलि को व्याकुल करती नहीं है। "भगवान का शरीर ही ऐसा होता है कि उनको भूख की पीडा से बाध होता नहीं है। उसके योग से उनको भोजन की भी जरुरत नहीं है।" ऐसा कहने के लिए भी संभव नहीं है। क्योंकि केवलज्ञानि में भूख की पीडा अनुमान से सिद्ध ही है। वह अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है - केवलि का शरीर क्षुधादि द्वारा पीडा का अनुभव करता है। क्योंकि शरीर है। जैसे कि हमारा शरीर । उपरांत "जैसे केवलि का शरीर स्वभाव से प्रस्वेदादि ( पसीने इत्यादि) से रहित होता है। उस अनुसार से कवलाहार का अभाव भी होता है।" ऐसा कहना बिलकुल अनुचित है क्योंकि उसमें कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए इस अनुसार से देशोनपूर्वक्रोड वर्ष रहनेवाले केवलि के शरीर को लम्बे आयुष्य की अपेक्षा है। वैसे उसके साथ नियत जुडे हुए सहकारीकारण आहार की भी अपेक्षा होती ही है तथा तैजसशरीर पहले खाई हुई खुराक को पचाता है और उसमें से रक्तादि बनाता है और स्वपर्याप्ति द्वारा उसमें से शरीर बनता है। इस प्रकार से जीव को फिर से भूख लगती है। वेदनीय कर्म के उदय में आहारग्रहण में कारणरुप उपरोक्त बताई हुई समग्रसामग्री केवलज्ञानि में संभवित होती है। इसलिए कौनसे कारण से केवलज्ञानि को भोजन होता नहीं है ऐसा कहते हो ? "चार घातिकर्म क्षुधा की वेदना के उदय में सहकारीकारण है । केवलज्ञान में चार घातिकर्मो का क्षय हुआ होने से उनको क्षुधा की वेदना होती नहीं है।" ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि क्षुधा वेदनीय के उदय में चार घातिकर्म सहकारि कारण नहीं है, कि जिससे चार घातिकर्म के अभाव में क्षुधावेदनीय के उदय का भी अभाव हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy