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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
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विद्यमानता में प्रचुर पुद्गलकर्म के उदय में भी तत्कृतपीडा अल्प ही होती है तथा जिनेश्वर परमात्मा को सातावेदनीय कर्म के पुद्गलो के प्रचूर उदय का अभाव होने पर भी तीव्र साता का अनुभव होता है। इसलिए "पुद्गलकर्मो का उदय ज्यादा होने पर पीडा ज्यादा और पुद्गलकर्मो का उदय कम होने पर पीडा कम ।" ऐसा कोई नियम नहीं है।
इस प्रकार "वेदनीयकर्म की उदीरणा से ही भूख की पीडा होती है।" ऐसा संबंध जोडने की आवश्यकता नहीं है। असाता कर्म का उदय भूख लगाने में पर्याप्तकारण है।
उपरांत आपके द्वारा "आहार की आकांक्षा वही क्षुधा है और वह आकांक्षा परिग्रहस्वरुप है। क्योंकि परिग्रह का मूलकारण आकांक्षा है और यह आकांक्षा मोहनीय कर्म का विकार है
और मोहनीय कर्म का विकार केवलज्ञानि का सर्वथा नष्ट हुआ है । इसलिए मोहनीयकर्म के विकार स्वरुप आहार की आकांक्षा केवलज्ञानि को न होने से उनको भुक्ति (कवलाहार) होती नहीं है।" ऐसा जो कहा जाता है वह भी असत्य है। क्योंकि मोहनीयकर्म के विपाक से क्षुधा उत्पन्न होती नहीं है। क्योंकि मोहनीयकर्म का विपाक प्रतिपक्षभावना से निवर्तमान है। जैसे कि, क्षमा इत्यादि प्रतिपक्षभावना को भावने से मोहनीयकर्म के विपाकस्वरुप क्रोधादि का उपरम होता दिखता है। इसलिए दशवैकालिक अ.८।३९ से "उपशम से क्रोध को मारो" इत्यादि कहा है।
परंतु विपक्षभावना भावने से (रखने से) क्षुधावेदनीय निवर्तमान होती नहीं है। विपक्षभावना से भूख मिट जाती नहीं है। इसलिए मोह का विपाकस्वरुप क्षुधा नहीं है।
इसके द्वारा "कृतार्थ केवलज्ञानि के आयुष्य में न्यूनाधिकता होती नहि है, निरावरण ज्ञानादि की हानि होती नहीं है तथा जगत के उपर उपकार करने में अनंतवीर्य विद्यमान है, जिसकी तृष्णा नष्ट हो गई है, ऐसे केवलज्ञानि को भोजन की क्या आवश्यकता है।" ऐसा जो कहा जाता है, उसका भी खंडन हो जाता है।
उपरांत आहार ग्रहण में कारणरुप औदारिकसामग्री केवलज्ञानि को केवलज्ञान की प्राप्त के बाद भी होती है। इसलिए केवलज्ञान के सद्भाव में आहारग्रहण में कारणरुप शरीरादिसामग्री होने पर भी भोजन का अभाव कहोंगे तो केवलज्ञानिको केवलज्ञान पाने से पहले भी भोजन के अभाव की आपत्ति आ पडेगी।
इसके सामने "छद्मस्थ जीव को समस्तवीर्यांतराय के क्षय का अभाव होने से (शरीर की स्थिति के लिए) भोजन करना पडता है।" ऐसा आप कहोंगे तो वह भी अयुक्त है। क्योंकि छद्मस्थ जीव को आयुष्य की हानि या ज्ञानादि की हानिरुप क्या कारण है कि जिससे भोजन करना पडता है। इस प्रश्न के जवाब में बताना ही पडेगा कि दीर्घकाल की स्थितिवाले आयुष्य की हानि न हो, इसके लिए आहार ग्रहण किया जाता है। तो केवलज्ञानि को भी दीर्घ आयुष्य के कारण भोजन मानने में क्या इतराज (दिक्कत) है? इसलिए चिरकालीन आयुष्यकर्म के कारण केवलज्ञानि को भोजन मानने में कोई विरोध नहीं है। इसी तरह से सिद्धिगति में समस्त मन-वचन-काया के व्यापार का निरोध करने स्वरुप व्युपरतक्रिया स्वरुप ध्यान
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