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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन 1 अब “सभी पुरुष असर्वज्ञ है । क्योंकि वे वक्ता है ।" इस तरह से सभी पुरुषो को धर्मी बनाकर असर्वज्ञता की सिद्धि करना भी उचित नहीं है। क्योंकि वक्तृत्व को सर्वज्ञता के साथ विरोध नहीं है और वक्तृत्व की असर्वज्ञता के साथ मित्रता नहीं है । वक्तृत्व तो सर्वज्ञ हो या असर्वज्ञ हो, दोनो जगह पे रह सकता है। इसलिए वक्तृत्वरुप हेतु सर्वज्ञरुप विपक्ष में वृत्ति है। अर्थात् विपक्षरुप सर्वज्ञ में वक्तृत्वरुप हेतु के व्यक्तिरेक की असिद्धि (= अभाव की असिद्धि) होने से वक्तृत्व हेतु संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक (= संदिग्ध - अनैकान्तिक) है। इसलिए वक्तृत्व हेतु सर्वज्ञाभाव को सिद्ध नहीं कर सकता है । अर्थात् सर्वज्ञ वक्ता भी हो सकता है। 1 इसलिए कोई भी अनुमान सर्वज्ञ का बाध करने के लिए समर्थ नहीं बन सकता है । नाप्यागमः, स हि पौरुषेयोऽपौरुषेयो वा । न तावदपौरुषेयः तस्याप्रामाण्यात्, वचनानां गुणवद्वक्त्राधीनतया प्रामाण्योपपत्तेः 1 किं चास्य कार्ये एवार्थे प्रामाण्याभ्युपगमान्न सर्वतः स्वरूपनिषेधे प्रामाण्यं स्यात् । न चाशेषज्ञानाभावसाधकं किंचिद्वेदवाक्यमस्ति,“हिरण्यगर्भःसर्वज्ञःE-49” इत्यादिवेद-वाक्यानां तत्प्रतिपादकानामनेकशः श्रवणात् । नाप्युपमानं तद्बाधकम् E-50, तत्खलूपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सति गोगवयवत् स्यात् । न चाशेषपुरुषाः सर्वज्ञश्च केनचिद्दृष्टाः येन 'अशेषपुरुषवत्सर्वज्ञः सर्वज्ञवद्वा ते ' इत्युपमानं स्यात् । अशेषपुरुषदृष्टौ च तस्यैव सर्वज्ञत्वापत्तिरिति । नाप्यर्थापत्तिस्तद्बा-धिकाE-51, सर्वज्ञाभावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य कस्याप्यर्थ-स्याभावात्, वेदप्रामाण्यस्य च सर्वज्ञे सत्येवोपपत्तेः । न हि गुणवद्वत्तुरभावे वचसां प्रामाण्यं घटत इति न सर्वज्ञे बाधकसंभवः, तदभावे च प्रमाणपञ्चकाप्रवृत्तिरप्यसिद्धा 1 तथा यदुक्तं “प्रमाणपञ्चकाप्रवृत्त्याभावप्रमाणविषयत्वं,” तदप्यनैकान्तिकंE-52, हिमवत्पलपरिमाणपिशाचादिभिः तेषां प्रमाणपञ्चकाप्रवृत्तावप्यभावप्रमाणगोचरत्वाभावादिति “ प्रमाणपञ्चकं यत्र" इत्याद्यपास्तं द्रष्टव्यम् । व्याख्या का भावानुवाद : आगम से भी सर्वज्ञ का बाध नहीं किया जा सकता । ४७ /६७० आप कहिये कि आगम पौरुषेय है या अपौरुषेय है ? आगम अपौरुषेय होता नहीं है। क्योंकि अपौरुषेय आगम अप्रमाणभूत है । वचन गुणवान वक्ता के अधीनपन से ही प्रमाणभूत बनते है । अर्थात् अपौरुषेय आगम प्रमाणभूत नहीं बन सकता है। क्योंकि किसी भी वचनो की प्रमाणता वक्ता के अधीन होती है। बोलनेवाला वक्ता कौन है ? उसके आधार से वचन प्रमाणभूत है, या अप्रमाणभूत है वह निश्चि (E-49-50-51-52 ) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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