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________________ ४८/६७१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन होता है। इसलिए अपौरुषेय आगम (वेद) प्रमाणभूत न होने से उससे सर्वज्ञ का बाध नहीं हो सकता है। तथा अपौरुषेय वेद का कोई आद्यवक्ता ही नहीं है, तो उसको प्रमाणभूत किस तरह से माना जा सकेगा? और वैसे अप्रमाणभूत वेद से सर्वज्ञ का बाध किस तरह से हो सकेगा? उपरांत आप वेद को स्वरुप प्रतिपादक मानते नहीं है। क्योंकि आपका मत है कि... "वेद का प्रत्येक शब्द अग्निष्टोम इत्यादि यज्ञरुप कार्यो का ही प्रतिपादन करता है तथा वह कार्य अर्थ में प्रमाण है। वह किसीके स्वरुप के प्रतिपादन या उसके निषेध में प्रमाण ही नहि है।" वेद में जो "सर्वज्ञ, सर्ववित्" इत्यादि शब्द आते है, उसको आप सर्वज्ञ के स्वरुप के प्रतिपादक मानते नहि है। आप तो कहते है कि... वह सर्वज्ञ इत्यादि शब्द कोई यज्ञविशेष की स्तुति करने के लिए है। सर्वज्ञ के स्वरुप के प्रतिपादन के लिए नहीं है। जो अग्निष्टोम या अन्य कोई विवक्षितयज्ञ करता है वही सर्वज्ञ, सर्ववित् है। इस तरह से कोई यज्ञ इत्यादि की स्तुति करना वही सर्वज्ञ इत्यादि शब्दो का कार्य है। इस तरह से वेद का कोई भी शब्द स्वरुपार्थक नहीं है। तो वेद के शब्द से किस तरह से असर्वज्ञता का विधान और सर्वज्ञता का निषेध किया जा सकेगा? उपरांत अशेषज्ञान (सर्वज्ञता)के अभाव का साधक कोई वेदवाक्य नहीं है। अर्थात् कोई वेदवाक्य ऐसा नहीं है कि जिससे संपूर्णज्ञान जिसमें है, उस सर्वज्ञता का सीधा खंडन कर सके। परंतु वेद में "हिरण्यगर्भः सर्वज्ञः" इत्यादि अनेकवेदवाक्य सर्वज्ञता का प्रतिपादन करते है। (वैसा अनेक बार सुना है।) उपमान प्रमाण भी सर्वज्ञता का बाधक नहीं है। जहाँ उपमान तथा उपमेय दोनो पदार्थ प्रत्यक्ष से अनुभव में आते है वहाँ "यह गवय, गाय के समान है।" ऐसा उपमान लगाया जा सकता है । गाय और गवय दोनो भी प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ है। इसलिए उपमान प्रमाण की मर्यादा में आ जाते है। परंतु कोई भी व्यक्ति जगत के सभी व्यक्तियों को या सर्वज्ञ को जान सकती नहीं है कि जिससे जगत के सभी पुरुष जैसे सर्वज्ञ है अथवा सर्वज्ञ जैसे जगत के सभी पुरुष है। ऐसा उपमान लगा सके। यदि उसको जगत के सभी पुरुष तथा सर्वज्ञ प्रत्यक्षसिद्ध हो तो ही वैसे प्रकार का कह सकते है और यदि जगत के सभी पुरुष तथा सर्वज्ञ उसको प्रत्यक्षसिद्ध हो तो वह सर्वज्ञ ही बन जायेगा। उससे वह सर्वज्ञता में बाधा देते देते सर्वज्ञता को सिद्ध करने का जीवंत उदाहरण बन जायेगा। अर्थापत्ति भी सर्वज्ञता की बाधक नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ के अभाव के बिना असंगत (अनुपपन्न) किसी भी अर्थ का अभाव है। अर्थात् यदि सर्वज्ञ के अभाव के साथ ही कोई खास संबंध रखनेवाले सर्वज्ञ के अभाव के बिना (असंगत =) नहि रहनेवाला कोई भी पदार्थ मिलता हो तो, उससे सर्वज्ञ का अभाव कह सकेंगे परंतु सर्वज्ञाभाव के साथ रहेनाला कोई भी पदार्थ जगत में दृष्टिगोचर होता ही नहीं है। (कहने का मतलब यह है कि जैसे देवदत्त के पतलेपन का अभाव (दिन में खाता हुआ देखने में आता न होने से) रात्रिभोजन पदार्थ के बिना संभव नहीं बनता है। इसलिए अर्थापत्ति से रात्रिभोजन की सिद्धि होती है। यहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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