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________________ ४६ / ६६९ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन यदि सर्वज्ञ का स्वीकार करोंगे तो उसका विरोध किस तरह से कर सकोंगे ? सर्वज्ञ का स्वीकार करने से आपने किये हुए विधान में ही विरोध आयेगा | आपने पहले कहा है कि " वक्तृत्वादि धर्म से युक्त सर्वज्ञ जैसा कोई व्यक्ति नहीं है ।" उसका विरोध आयेगा । इसलिए वक्तृत्वादि हेतु से भी सर्वज्ञत्व का बाध नहीं होता है । इसलिए कोई भी हेतु से सर्वज्ञ का असत्त्व सिद्ध करना संभव नहीं है। सर्वज्ञ को धर्मी बनाकर उसमें असर्वज्ञता सिद्ध करनी वह परस्पर विरोधी है । वह सर्वज्ञ है ही, तो फिर असर्वज्ञता किस तरह से सिद्ध हो सकेगी ? "वह सर्वज्ञ भी है, असर्वज्ञ भी है।" यह तो परस्पर विरोधी बात है। अब आप बतायें कि सर्वज्ञ को असर्वज्ञ कहने का कारण क्या है ? (१) क्या प्रमाणविरोधी कथन करने के लिए असर्वज्ञ है ? या (२) प्रमाणसिद्ध सत्यकथन करने के कारण असर्वज्ञ है ? या (३) उसमें वक्तृत्व है, इसलिए असर्वज्ञ है ? | प्रथमकारण असिद्ध है। क्योंकि सर्वज्ञ प्रमाणविरोधी कथन करे वह असंभवित है । सर्वज्ञ पदार्थ के यथार्थ ज्ञाता है तथा वीतराग है, तो असत्य बोलने का कारण क्या है ? द्वितीयपक्ष विरुद्ध है । क्योंकि प्रमाणसिद्ध बोलनेवाला असर्वज्ञ किस तरह से हो सकेगा ? दृष्ट : और इष्ट जैसे अविरुद्ध अर्थ का कथन सर्वज्ञत्व होने पर भी संभवित होता है । जो सर्वज्ञ हो वही प्रमाणसिद्ध अविरुद्ध अर्थ का कथन कर सकता है। ऐसा प्रमाणसिद्ध दृष्ट और इष्ट ऐसे अविरुद्ध पदार्थ का कथन करनेवाले को असर्वज्ञ किस तरह से कहा जायेगा ? सर्वज्ञ बोलता है, इतने मात्र से सर्वज्ञता का विरोध करना संभवित नहि है । इसलिए तीसरा पक्ष अनैकान्तिक (व्यभिचारी) है । इससे धर्मी के रुप में सुगतादि को बनाने का पक्ष भी असत्य सिद्ध होता है। क्योंकि सर्वज्ञ को धर्मी बनाते हुए पक्ष में जो दोष आते थे, वे सभी दोष यह भी आते ही है । उपरांत प्रतिनियत सुगतादि की सर्वज्ञता का निषेध करने से उसके सिवा के अन्य व्यक्तिओ में सर्वज्ञता का अवश्य विधान हुआ मानना पडेगा । अर्थात् सुगतादि को असर्वज्ञ कहोंगे, तो उसके सिवा अन्य में सर्वज्ञता का विधान अपनेआप हो जायेगा। क्योंकि नियम है कि, विशेष का निषेध शेष की अनुज्ञा को अविनाभावी होता है । अर्थात् कोई व्यक्तिविशेष में कोई विशेषधर्म का निषेध करने से शेष व्यक्तियों में उस धर्म का सद्भाव अपनेआप सिद्ध हो जाता है। जैसे कि, कोई व्यक्तियों के समूह में कोई एक व्यक्ति को ध्यान में रखकर कहा जाये कि, "यह ब्राह्मण नहीं है तो उससे शेष व्यक्ति ब्राह्मण है, वह स्वयंमेव सिद्ध हो जाता है । "" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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