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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ४५/६६८ का विषय नहीं है। किसी आत्मा में सर्वकर्मका क्षय हुआ होता है। वह आगे सिद्ध किया जायेगा। "सर्वज्ञ के कार्य का विरोध करने से सर्वज्ञ का अभाव है।" यह उत्तर भी अनुचित है। क्योंकि सर्वज्ञत्व के साथ विरुद्ध किचित्सत्व है। अर्थात् सर्वज्ञका विरोधी किचिंत्तत्व है उसका कार्य नियतार्थ विषय है। अर्थात् वह किचित् ही जानता है यानी कि वह सभी पदार्थो को जानता नहीं है। परंतु नियतपदार्थो को ही जानता है अर्थात् उसका ज्ञान नियतार्थ विषयक है। इस नियतार्थ विषयक का विधान भी सर्वत्र और सर्वदा सर्वज्ञाभाव को सिद्ध नहीं करता है। क्योंकि जिस स्थान पे नियतार्थविषय का विधान किया है, उसी स्थान पे सर्वज्ञाभाव का समर्थन करता है। परन्तु सर्वत्र नहि । जैसे कि.. शीत का विरोधी अग्नि, उसका कार्य धूम । उस धूम विशिष्ट प्रदेश में ही शीतस्पर्श का निषेध किया जा सकता है। परंतु सर्वप्रदेश में नहि । इस प्रकार जहाँ नियतपदार्थ ही विषय बनते हो वहीं सर्वज्ञाभाव सिद्ध हो सकता है। परंतु सामस्त्येन सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहि होता है। ___ इसलिए विरुद्धविधि भी सर्वज्ञ का बाधक नहि है। नापि E-46वक्तृत्वादिकं, सर्वज्ञसत्त्वानभ्युपगमे तस्यानुपपत्त्याऽसिद्धत्वात्, तदुपपत्तौ च स्ववचनविरोधो 'नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वादिधर्मोपेतश्चेति' तन्न सर्वज्ञस्यासत्त्वं कुतोऽपि हेतोः साधयितुं शक्यम् । नाप्यसर्वज्ञत्वं साध्यं सर्वज्ञोऽसर्वज्ञ इत्येवं, विरोधस्यात्राप्यविशिष्टत्वात् । किंचासर्वज्ञत्वे-47 साध्ये सर्वज्ञस्य प्रमाणविरुद्धार्थवक्तृत्वं १ तद्विपरीतं २, वक्तृत्वमात्रं ३ वा हेतुत्वेन विवक्षितम् । प्रथमोऽसिद्धो हेतुः, सर्वज्ञस्य तथाभूतार्थवक्तृत्वासंभवात् । द्वितीयपक्षे तु विरुद्धः, दृष्टेष्टाविरुद्धार्थवक्तृत्वस्य सर्वज्ञत्वे सत्येव संभवात् । तृतीयपक्षेऽप्यनैकान्तिकः, वक्तृत्वमात्रस्य सर्वज्ञत्वेन विरोधासंभवात् । एतेन सुगतादिधर्मिपक्षोऽपि प्रत्याख्यायि, प्रोक्तदोषानुषङ्गाविशेषात् । किंच प्रतिनियतसुगतादेः सर्वज्ञतानिषेधेऽन्येषां तद्विधिरवश्यंभावी, विशेषनिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानान्तरीयकत्वात्, “अयमब्राह्मणः” इत्यादिदिति । अथ सर्वपुरुषानुररीकृत्य तेषामसर्वज्ञता वक्तृत्वादेः साध्यते तन्न, विपक्षात्तस्य व्यतिरेकासिद्ध्या-48 संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वात् सर्वज्ञोऽपि भविष्यति वक्तापीति । तन्नानुमानं सर्वज्ञबाधकम् । व्याख्या का भावानुवाद : तथा सर्वज्ञ के असत्त्व का साधकहेतु वक्तृत्वादि भी नहि है। क्योंकि आप लोग सर्वज्ञ की सत्ता का ही स्वीकार नहीं करते है, तो सर्वज्ञ का बोलना कहा से होगा? अर्थात् जो व्यक्ति का अस्तित्व हो, वही व्यक्ति बोलता होता है। (E-46-47-48)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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