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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, श्लोक - ४५-४६, , जैनदर्शन यदि असर्वज्ञ भी तीनो काल में या तीनो लोक में सर्वज्ञ के अभाव का विधान कर सकता हो, तो वह भी असर्वज्ञ नहीं रहेगा परन्तु सर्वज्ञ ही बन जायेगा। क्योंकि वह जो विधान करता है, वह तीनो काल या तीनो लोक के परिज्ञान के बिना किया नहीं जा सकता । और यह तो हमको इष्ट ही सिद्ध हो गया । ४४ / ६६७ "सर्वज्ञ का परंपरा से विरोध करनेवाले असर्वज्ञ का विधान किया गया है । अर्थात् सर्वज्ञ का अभाव कहा गया है ।" ऐसा कहोंगे तो प्रश्न है कि... (१) सर्वज्ञ के व्यापक धर्म का विरोध करने से सर्वज्ञ का अभाव कहोंगे ? या (२) सर्वज्ञ के कारण का विरोध करने से सर्वज्ञ का अभाव कहोंगे ? (३) सर्वज्ञ के कार्य का विरोध करने से सर्वज्ञ का अभाव कहोंगे ? । इसके उत्तर में "सर्वज्ञ के व्यापक धर्म का विरोध करने से सर्वज्ञ का अभाव है ।" ऐसा कहोंगे तो वह योग्य नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ का व्यापक धर्म सकलार्थसाक्षात्कारित्व है । उसका विरोधी धर्म असकलार्थ साक्षात्कारित्व या नियतार्थग्राहित्व है । (अर्थात् सर्वज्ञ का व्यापकधर्म सभी पदार्थो का साक्षात्कार करना वह है। उस धर्म को विरोधी सकल पदार्थो का साक्षात्कार न करना अथवा कुछ खास पदार्थो का ही साक्षात्कार करना वह है ।) उस असकलार्थसाक्षात्कारित्व या नियतार्थग्राहित्व का विधान किसी स्थान पे किसी काल में ही किया जा सकता है, परंतु सभी स्थान पे और सर्वकाल में नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह असर्वज्ञ का विषय नहीं है । (हाँ, कुछ खास स्थान पे या कुछ खास काल में निषेध करना वह असर्वज्ञ का विषय है। क्योंकि वह अपने नजदीक में रही हुई हकीकत का विधान कर सकता है। परंतु तीनो काल या तीनो लोकसंबंधित विधान नहीं कर सकता है। जैसे कि, तुषार का व्यापकधर्म शीत स्पर्श है। उसका विरोधी अग्नि है । उस अग्नि के विधान से किसी स्थान पे या किसी समय में तुषार और उसकी ठंडक का निषेध किया जा सकता है। परंतु सभी स्थान पे या सभी काल में तुषार और उसकी ठंडक का निषेध किया नहीं जा सकता। (अर्थात् जहाँ अग्नि जलाई जाये, वहां उसी समय तुषार और उसकी ठंडक का अभाव होता है, परंतु सर्वत्र या सर्वदा नहीं ।) "सर्वज्ञ के कारणो का विरोध करने से सर्वज्ञ का अभाव है ।" ऐसा उत्तर भी अयोग्य है । क्योंकि सर्वज्ञता का कारण सकलकर्म का क्षय है। उसका विरोधी सकलकर्म के क्षय का अभाव है । उस सकलकर्म के क्षयाभाव का विधान किसी आत्मा में किसी काल में ही किया जा सकता है। इसलिए किसी आत्मा में किसी काल में ही सर्वज्ञाभाव सिद्ध होता है, परन्तु सर्व जीवो में सर्व काल में सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता। जैसे कि, शरीर का रोमांचित होना, हर्ष होना इत्यादि कार्य का कारण शीत है। उसका विरोधी अग्नि है, उस अग्नि को जलाने से किसी स्थान पे या किसी काल में ही शीत का नाश होने से (कारण का नाश होने से) उसका कार्य शरीर रोमांचित होना, हर्ष होना इत्यादि दिखता नहीं है । इसलिए उसका निषेध किया जा सकता है। परंतु सर्वत्र या सर्वदा उसका निषेध किया जा सकता नहीं है। इस प्रकार सर्वकर्म के क्षयाभाव का विधान सर्वकाल में और सर्व स्थान पे आत्मा में नहीं किया जा सकता है। क्योंकि वह असर्वज्ञ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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