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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन ४३/६६६ करने का स्वभाव है और उसमें प्रतिबंधक कर्मो का क्षय हुआ है। जो जो वस्तु का जो जो ग्रहण करने का स्वभाव होता है तथा वह ग्रहण करने में प्रतिबंधक बनती वस्तु का क्षय होता है, तब उस उस वस्तु का साक्षात्कार होता है। जैसे आंख का रुप को ग्रहण करने का स्वभाव है तथा रुप को ग्रहण करने में प्रतिबंधक आंख का रोग (तिमिर) नष्ट हुआ है, वैसी आंख रुप का साक्षात्कार करती है। इस तरह से व्यक्ति का जगत के सभी पदार्थो का साक्षात्कार करने का स्वभाव है ही। उसमें प्रतिबंधक बनते कर्मों का अत्यंत नाश होता है, तब वह सर्वपदार्थो का साक्षात्कार करता है। यही उसकी सर्वज्ञता है। इसलिए "व्यापकधर्म की अनुपलब्धि" यह हेतु सर्वज्ञाभाव का साधक बनता नहीं है। विरुद्धविधि अर्थात् सर्वज्ञ से विरुद्ध असर्वज्ञ की विधि भी सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं कर सकती। क्योंकि आप बताये कि असर्वज्ञ की विधि साक्षात् सर्वज्ञाभाव को सिद्ध करती है या परंपरा से सर्वज्ञाभाव को सिद्ध करती है ? "सर्वज्ञ से विरुद्ध असर्वज्ञ की विधि साक्षात् सर्वज्ञाभाव को सिद्ध करती है । अर्थात् सर्वज्ञ का साक्षात् विरोध करनेवाले असर्वज्ञ का विधान करके सर्वज्ञाभाव सिद्ध करता है।" ऐसा प्रथमपक्ष स्वीकार करोंगे, तो प्रश्न होगा कि सर्वज्ञ का साक्षात् विरोध करनेवाले असर्वज्ञ का विधान किसी निश्चित देश में या निश्चित समय में अथवा तीन काल संबंधी सर्वदेश में या तीन काल संबंधी सर्वकाल में किया जायेगा? "सर्वज्ञ का साक्षात् विरोध करनेवाले असर्वज्ञ का विधान किसी निश्चित देश-काल में किया जायेगा।" ऐसा प्रथम पक्ष में सर्वत्र और सर्वदा सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहि होगा। केवल जहाँ विधान किया होगा उस उस देश काल में ही सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध होगा। जिस स्थान पे जिस काल में अग्नि जलाया जायेगा। उसी स्थान पे और उसी काल में ही शीत (ठंडी) का अभाव होगा। परंतु सर्वत्र और सर्वदा शीत का अभाव होता नहीं है। अर्थात् जिस देश और जिस समय में अग्नि जलाया जाये, उस देश और उस समय में ही अग्नि के व्यापक उष्णता विरोधी शीत का अभाव दिखता है, परन्तु तीन लोक में या तीनो काल में अग्नि के व्यापक उष्णता के विरोधी शीत का अभाव देखने को नहीं मिलता है। ___ "सर्वज्ञ का साक्षात् विरोध करनेवाले असर्वज्ञता का विधान तीन लोक में तथा तीनो काल में किया जायेगा।" यह द्वितीय पक्ष भी अयोग्य है । क्योंकि छद्मस्थ (असर्वज्ञ) से तीनो लोक में या तीनो काल में सर्वज्ञ का विरोध करनेवाले असर्वज्ञ का विधान करना असंभवित है। क्योंकि जो सर्वज्ञ हो वही तीनोलोक और तीनो काल का परिज्ञान कर सकता है। असर्वज्ञ के लिए वह संभव नहीं है। इसलिए असर्वज्ञ तीनो काल और तीनो लोक में सर्वज्ञ के अभाव का विधान नहीं कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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