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________________ ६६२/१२८४ षड्दर्शन समुञ्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) एकाकी भूतल को उक्त व्यवहार का निमित्त कहा जाता है, तब भी 'एकाकी' शब्द का एकत्व संख्या-विशिष्ट अर्थ मानने पर घटवाले भूतल में उक्त व्यवहार प्रसक्त होता है । यदि “एकादाकिनिच्चासहाये" (पा० सू० ५/२/५२) इस सूत्र के अनुसार असहायार्थक 'एक' शब्द से स्वार्थ में 'आकिनिच्' प्रत्यय करके 'एकाकी' शब्द का असहाय या द्वितीय से असहकृत अर्थ किया जाता है, तब तत्त्वान्तरापत्ति का वही दोष बना रहता है, जिससे वचने के लिए उक्त पाणिनि सूत्र का सहारा लिया गया था-यह बात वैसी ही है जैसे कि कोई चुङ्गी कर बचाने की लिए चुङ्गी चौकी से कतराकर रात को घूमते-घूमते प्रभात में उसी घटकुट्टी (चुङ्गी-चौकी) पर पहुँच जाय । इन्हीं युक्तियों से केवलादि शब्दों की आलोचना की जा सकती है। ___ श्री भवनाथ का मत-नयविवेककार श्री भवनाथ ने कहा है-“यत्र यस्याभावधी: तत्र तत्संसृष्टधी स्ति, स्वरूपधीस्त्वस्तीति द्वयी स्वरूपधीरास्थेया । तत्र या संसृष्टधीतोऽन्याविधा, सा तन्मात्रधीविधा, तद्धीवेद्यं च तन्मात्रमिति न मेयान्तरम्" (नयवि० पृ० १६३-१६४) (अर्थात् जहाँ भूतलादि में घटादि के अभाव का भान होता है, वहाँ 'घटसंयुक्तं भूतलम्'-इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता 'भूतल का स्वरूप-ज्ञान तो होता है, अतः दो प्रकार की स्वरूपधी माननी चाहिए-एक घट के रहने पर, दसरी घट के न रहने पर । उनमें घट-काल से भिन्न काल की जो स्वरूप धी है, वह तन्मात्रधी है और वही अभाव-विशिष्ट-व्यवहार की नियामिका मानी जाती है, अत: अभाव नाम का प्रमेयान्तर व्यर्थ है)। ___ भवनाथ-मत की ओलचना-भवनाथ पण्डित से यह प्रश्न करना चाहिए कि, संसृष्टावस्थाक भूतल के स्वरूपज्ञान से भिन्न स्वरूप-ज्ञान का विषय क्या है ? यह जो कहा 'तद्धीवेद्यं तन्मात्रम्'-यहाँ प्रयुक्त 'मात्र' शब्द का अर्थ यदि भूतल से अतिरिक्त है, तब उसमें तत्त्वान्तरतापत्ति और अतिरिक्त अर्थ न मानने पर घट के रहने पर भी भूतल में घटाभावव्यवहार प्रसक्त होता है । 'घट के रहने पर तो संसृष्ट स्वरूपधी ही है, उससे भिन्न स्वरूप धी नहीं'-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि वहाँ प्रयुक्त 'मात्र' शब्द का अतिरिक्त अर्थ न होने पर कथित दोनों स्वरूप-ज्ञानों की वहाँ प्रसक्ति होती है, अन्यथा ‘मात्र' शब्द का अतिरिक्त अर्थ मानना होगा । दूसरी बात यह भी है कि, यह जो कहा गया है कि 'संसृष्टस्वरूपधीतोऽन्या स्वरूपधी:'-यहाँ 'अन्य' शब्द का 'असंसृष्टत्व' अर्थ में बलात् पर्यवसान मानना होगा, तब वे ही पुराने दुर्धर्ष दोष दुरुद्धर हो जाते हैं, अत: 'अभाव' नाम का अतिरिक्त पदार्थ मानना आवश्यक है, उसे मिलाकर सब पाँच ही पदार्थ सिद्ध होते हैं । (१) शून्यवाद-कथित पाँच पदार्थो से अतिरिक्त एक शून्य तत्त्व के संस्थापक माध्यमिकाचार्य श्री नागार्जुन के जीतेजी यह नहीं कहा जा सकता है कि 'पञ्चैव पदार्थाः'. क्योंकि शन्यवादी शन्य को भावाभाव से भिन्न ही मानता है. माध्यमिक कारिका (१५/१०) में कहा है- अस्तीति शाश्वतग्राहो नास्तीत्युच्छेददर्शनम् । तस्मादस्तित्वनास्तित्वेनाश्रीयेत विचक्षणः ।। शून्यवाद में ज्ञान और ज्ञेय-दोनों की स्वाभाविक सत्ता का निराकरण करते हुए कहा गया है-'विमतं विज्ञानं शून्यविषयम्, विज्ञानत्वात्, स्वाप्नविज्ञानवत् ।' ज्ञेय तत्त्व की निःस्वभावता के कारण ज्ञान तत्त्व भी निःस्वभाव हो जाता है-ज्ञेयाभावे 'ज्ञानस्याप्यभावात्' । इसी निःस्वभावता या शून्य का जगत् विवर्त माना जाता है [ब्रह्मविवर्तवाद में जैसे ब्रह्म के आधार पर जगत् मरुमरीचि के समान आरोपित मात्र होता है, वैसे ही शून्यविवर्त पद में । श्री आर्यदेव चतुःशतक (१३/२६) में कहते हैं- अलातचक्रनिर्माणस्वप्नमायाम्बुचन्द्रकैः । धूमिकान्त प्रतिश्रुत्कामरीच्यभ्रेः समो भवः ।। जैसे किसी लकडी के मुख को जलाकर घुमाने पर अग्नि का चक्रभ्रम (अलातचक्र) बन जाता है, योगी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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