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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) ६६३ / १२८५ अपनी यौगिक शक्ति के द्वारा सिंह-व्याघ्रादि शरीरों का निर्माण कर लेता है, स्वप्न में विना सामग्री के ही चलता-फिरता संसार दिखाई देता है, मायाकार (जादूगर) अपने जादू के बल पर विचित्र-विचित्र दृश्य बना कर दिखा देता है, जलगत चन्द्र का मिथ्या प्रतिबिम्ब देखा जाता है, शीत ऋतु में गाँव के चारों ओर धूमिका (धूमाभासिका) प्रतीत होती है, (पर्वतकन्दरा में) शब्द की प्रतिध्वनि गूँजती सुनाई देती है, मरुमरीचि में नदी का भ्रम हो जाता है, पर्वतशिखर से देखने पर दूरस्थ अभ्रखण्डों का समूह एक सुन्दर नगर (गन्धर्वनगर) के रूप में दिखाई देता है । ठीक उसी प्रकार यह जीता-जागता जगत् १ एक विशाल विभ्रममात्र है ।] भी (२) विज्ञानवाद-माध्यमिकाभिमत ज्ञानाभाववाद का निराकरण करते हुए योगाचारगण कहते हैं-'अस्तु ज्ञेयाभाव:, ज्ञानं तु न निराकर्तुं शक्यम्' । स्वप्नादि - स्थलों पर भी ज्ञान का अभाव नहीं होता, विविध ज्ञानों की उत्पत्ति देखी जाती है। ज्ञेयाभाव के द्वारा जो ज्ञानाभाव की कल्पना की जाती है, वह अनुभव - विरुद्ध है । विज्ञान ही घटादि प्रपञ्च के रूप में विपरिणत होता है, अतः सब घटादि आकार विज्ञान के ही होते हैं, विज्ञान साकार है, (श्री वसुबन्धु विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि विंशिका के आरम्भ) में कहते हैं- आत्मधर्मोपचारो हि विविधो यः प्रवर्तते । विज्ञानपरिणामोऽसौ परिणामः स चत्रिधा ।। यह सब आत्मा (चेतन वर्ग) तथा धर्मरूप (घटपटादि जड वर्ग) विविध जगत् विज्ञान का परिमाण और विज्ञान में ही कल्पित है, उससे अतिरिक्त नहीं । विज्ञान तीन प्रकार का होता है - (१) विपाक या आलय विज्ञान, (२) मनन या क्लिष्ट मन तथा (३) विषय-विज्ञप्ति (चाक्षुषादि छः प्रकार का ऐन्द्रियक ज्ञान ) । दूसरी बात यह भी है कि, घटादि पदार्थ स्वयं प्रकाश ज्ञान से अभिन्न होते हैं-'यत् प्रकाशते, तत् प्रकाशादभिन्नम्, यथा प्रदीपः, तस्माद्विज्ञानविर्वत जगत् ।' (श्री धर्मकीर्ति ने प्र० वा० पृ० ३५३ पर कहा है- प्रकाशमानस्तादात्म्यात् स्वरूपस्य प्रकाश प्रकाशोऽभिमतस्तथा धीरात्मवेदिनी । । ) (३) बाह्यर्थानुमेयवाद - सौत्रान्तिकगण कहते हैं कि योगाचाराभिमत साकार विज्ञान को मान लेने पर भी बाह्यार्थ का अपलाप नहीं हो सकता, कर्योंकि ज्ञान में स्वतः वैचित्र्य नहीं, बाह्य नीलपीतादि पदार्थ अपने विविध आकारों का समर्पण कर ज्ञान में चित्रता का आधान करते हैं । योगाचार का जो कहना है कि एकरूप विज्ञान ही नीलपीतादि विविधाकारों में स्वतः ही परिणत होता है, वह तब तक सम्भव नहीं, जब तक बाह्य विषय न माना जाय । अतः विज्ञान के आकारों में वैविध्य देख कर उस वैविध्य के आधायक बाह्य नील-पीतादि पदार्थों का अनुमान होता है । वे क्षणिक होते हैं। यदि सभी पदार्थ अनुमेय है, तब विषयगत प्रत्यक्षत्व - अनुमेयत्व का विभाग क्योंकर होगा ?' -इस प्रश्न का उत्तर यह है कि, जो विषय ज्ञान में साक्षात् आकार का समर्पक होता है, उस विषय में प्रत्यक्षत्व और जो परम्परया आकारार्पक होता है, उसमें अनुमेयत्व माना जाता है । (४) बाह्यार्थप्रत्यक्षतावाद - वैभाषिकाचार्यों का कहना है कि, बाह्य नील-पीतादि द्रव्य विज्ञान में अपने कैसे आकारों का समर्पण करता है ? दृष्ट आकारों का ? या अनुमित आकारों का ? द्वितीय पक्ष सम्भव नहीं, क्योंकि आकार - समर्पण से पहले अनुमान प्रवृत्त ही नहीं हो सकता । यदि दृष्ट आकार का समर्पण माना जाय, तब नीलादि पदार्थों में दृष्टत्व या प्रत्यक्षत्व पर्यवसित होता है, अनुमेयत्व नहीं । नीलादि को दृष्ट न मानने पर दृष्टाकारसमर्पकत्व उनमें नहीं बन सकता, क्योंकि विज्ञान से सम्बद्ध होकर ही नीलादि अपने आकारार्पण के हेतु हो सकेंगे, असम्बद्ध को हेतु मानने पर सभी पदार्थ सर्वत्र हेतु हो जायेंगे । फलतः क्षणभङ्गुर नीलादि बाह्य पदार्थों को प्रत्यक्ष मानना आवश्यक है । उक्त शून्यवादादि की चारों शाखाएँ बुद्ध की शिष्य-प्रशिष्य-परम्परा से निकली हैं । उनके सिद्धान्तों का संक्षिप्त रूप-रेखा इस प्रकार है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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