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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम)
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समवाय के विषय में यह भी जिज्ञासा होती है कि, वह अपने जातिव्यक्त्यादि समवायी (सम्बन्धी) पदार्थों से अत्यन्त अभिन्न है ? अथवा नहीं ? अत्यन्त अभिन्न मानने पर समवायी जाति व्यक्त्यादि से भिन्न समवाय का सद्भाव नहीं माना जा सकता । यदि समवाय अपने सम्बन्धियों से भिन्न है, तब जिज्ञासा होती है कि उसका अपने सम्बन्धियों से सम्बन्ध है? या नहीं ? यदि सम्बन्ध है, तब वह भी समवायान्तर होगा और उसका भी अपने सम्बन्धियों से समवायान्तर-इस प्रकार अनवस्था होती है । समवाय का यदि अपने सम्बन्धियों से कोई सम्बन्ध नहीं माना जाता, तब 'गवि गोत्वम्'-इस प्रकार की विशिष्ट बुद्धि न होकर 'गोगोत्वसमवायाः'-ऐसी समूहालम्बनात्मक बुद्धि होनी चाहिए । अतः अवयव-अवयवी, गुण-गुणी, जाति-जातिमान् और क्रिया-क्रियावान् का परस्पर तादात्म्य सम्बन्ध मानना चाहिए, जिसकी चर्चा पहले ही की जा चुकी है।
न्यायसूत्रोक्त प्रमाणादि पदार्थ यद्यपि इन्हीं चार पदार्थों के अन्तर्गत ही हैं, तथापि कुछ विशेष प्रयोजन से पृथक् रखे गये हैं जैसा कि, श्री केशव मिश्र ने पदार्थषट्क प्रकरण में कहा है । यद्यपि इन्द्रिय, इन्द्रियसनिकर्ष, इन्द्रिय-जन्य ज्ञान और ज्ञान-जन्य प्राकट्यादिरूप प्रत्यक्षादि प्रमाण भी प्रमेय के अन्तर्गत ही आ जाते हैं । तथापि प्रमाणों के बिना प्रमेय पदार्थों की सिद्धि नहीं हो सकती, अत: साध्य-साधनभाव की विशेषता दिखाने के लिए प्रमाण
और प्रमेय का पृथक् निरूपण उचित ही है । संशय और प्रयोजनादि का भी प्रमाण और प्रमेय में अन्तर्भाव अत्यन्त स्पष्ट है । फलत: सभी भाव पदार्थों का उक्त द्रव्य, जाति, गुण और क्रिया-इन चार पदार्थों में समावेश हो जाता है, उनमें जो अन्तर्भूत नहीं होते, वे पदार्थं ही नहीं माने जा सकते, अत: भाव पदार्थों के सुनिरूपित हो जाने पर अभाव पदार्थ का निरूपण अयुक्त नहीं ।
प्रागभावादि चार भागों में विभक्त, अनुपलब्धिरूप षष्ठ प्रमाण से वेद्य अभाव पदार्थ कहा जाता है। अभाव दो प्रकार का होता है (१) संसर्गाभाव और (२) अन्योऽन्याभाव । संसर्गाभाव के तीन भेद हैं-(१) प्रागभाव, (२) ध्वंस और (३) अत्यन्ताभाव । (१) दूध में जो दधि का अभाव है, उसे प्रागभाव कहते हैं । (२) दधि में दूध के अभाव को ध्वंस और (३) वायु आदि में रूपादि के अभाव को अत्यन्ताभाव कहा जाता है । 'घट: पटो न भवति'-इस प्रकार का जो घटादि में पटादि का अभाव है, वह अन्योन्याभाव कहलाता है । वार्तिककार ने भी (श्लो० वा० पृ० ४७३ पर) कहा हैं- क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स उच्यते । नास्तिता पयसो दध्नि प्रध्वंसाभाव इष्यते ।। गवि योऽश्वाद्यभावस्तु सोऽन्योऽन्याभाव उच्यते । शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धिकाठिन्यवर्जिताः ।। शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते ।
प्राभाकर मत-प्रभाकर गुरु का कहना है कि 'अभाव' नाम का कोई तत्त्वान्तर होता ही नहीं, केवल भूतल को ही घटाभाव कहा जाता है, जब भूतल केवल न होकर घट से विशिष्ट होता है, तब वहाँ घटाभाव का व्यवहार नहीं होता, अतः अभाव भावान्तर मात्र है ।
प्राभाकर मत-निरास-'अघटं भूलतम्', 'इह भूतले घटो नास्ति'-इत्यादि विशिष्ट-व्यवहारों का मूल जो विशिष्ट भूतल होता है, उसके विशेषणीभूत पदार्थ को अवश्य तत्त्वान्तर मानना होगा । यदि केवल भूतल के ज्ञान से वैसा व्यवहार माना जाता है, तब भतल में घट के होने पर भी 'अघटं भतलम'-ऐसा व्यवहार होना चाहिए, क्योंकि वहाँ भी उसी भूतल का भान हो रहा है। यह जो कहा जाता है कि, भूतल मात्र का ज्ञान ही उक्त व्यवहार का कारण होता है । वहाँ मात्र' शब्द का अर्थ यदि भूतल से भिन्न है, तब तत्त्वान्तर मानना पडता है और यदि ‘मात्र' शब्द का अर्थ भूतल से अतिरिक्त कुछ भी नहीं, तब घट के रहने पर भी उक्त व्यवहार की आपत्ति पूर्ववत् बनी रहती है । यदि
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