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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) परिशेषानुमान से विशेष पदार्थ सिद्ध हो जाता है-"विवादपदं गुणसामान्यातिरिक्तसमवायि, द्रव्यत्वाद्, घटवत्" (मा० म० पृ० १२७) । गुण और जाति से भिन्न कर्म की घट में समवायिता को लेकर घट दृष्टान्त बनाया गया है, किन्तु मुक्त आत्मा और आकाशादि विभु पदार्थों में क्रिया सम्भव नहीं, अतः उससे भिन्न विशेष पदार्थ मानना आवश्यक है । इस अनुमान की आलोचना श्री चित्सुखाचार्य ने चित्सु० पृ० ३३० पर की है)।
समाधान-उक्त अनुमान पृथक्त्व गुण को लेकर अर्थान्तर हो जाता है । अर्थान्तर नाम का एक निग्रहस्थान है"प्रकृतादादप्रतिसम्बद्धार्थमर्थान्तरम्" (न्या० सू० ५/२/७) । विशेष पदार्थ के साधक अनुमान से पृथक्त्व की अनभिमत सिद्धि पर्यवसित होती है, जो कि पृथक्त्ववादी के लिए सिद्ध-साधन मात्र है) । वैशेषिकाचार्यों ने जो कहा है"नित्यद्रव्यवर्ती व्यावृत्तिमात्रबुद्धिविषयो विशेषः" (वै० भा० पृ० १६८) । वह भी पृथक्त्व से गतार्थ हो जाता है ।
समवाय में भी क्या (१) प्रत्यक्ष प्रमाण है ? अथवा (२) अनुमान ? तार्किक-सम्मत प्रत्यक्ष सम्भव नहीं होता, क्योंकि सूत्रकार ने कहा है-"इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः स समवायः" (वै० सू० ७/२६) उसके अनुसार 'पटाश्रयं शौक्ल्यम्', 'इह पटे शौक्ल्यम्'-इत्यादि प्रतीतियाँ इन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक से उत्पन्न होती हैं, अतः समवाय प्रत्यक्ष है-ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि जब कि समवाय ही विवादास्पद है, तब उक्त प्रतीति में समवाय विषयकत्व ही असिद्ध है । यदि कोई समवाय पदार्थ सिद्ध होता, तब अवश्य उक्त प्रतीतियाँ उसको विषय कर सकती थी। समवाय का प्रत्यक्ष मानने पर इन्द्रिय के साथ उसका सन्निकर्ष क्या होगा ? विशेषण-विशे को सन्निकर्ष नहीं मान सकते, क्योंकि आगे पर ही उसका निराकरण किया जा चुका है । समवाय के साथ इन्द्रिय का अन्य कोई सम्बन्ध बन नहीं सकता ।
(२) समवाय के सद्भाव में प्रभाकर-सम्मत अनुमान प्रमाण भी सम्भव नहीं, क्योंकि श्री वरदराज-प्रयुक्त "इह गवि गोत्वमिति प्रत्ययोऽधिकरणाधिकर्त्तव्यसम्बन्धनिबन्धनः, अबाधितेहप्रत्ययत्वाद्, इह कुण्डे बदराणीति प्रत्ययवत्" (ता० र० पृ० १६२) यह अनुमान सङ्गत नहीं, क्योंकि इह भूतले घटो नास्ति' इस प्रतीति में व्यभिचरित है-(प्रभाकरमतानुसार अभाव अपने अधिकरण से अतिरिक्त नहीं होता, अधिकरण के साथ उसका कोई सम्बन्ध भी नहीं, अतः ‘इह घटो नास्ति'-इस प्रतीति में सम्बन्धनिबन्धनत्वरूप साध्य न होने पर भी प्रत्ययत्व रह जाता है) । 'विवादपदं विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धनिबन्धनम्, विशिष्टज्ञानत्वाद्, दण्डीतिज्ञानवत्'-यह अनुमान भी ‘विनष्टो घट:'-इस ज्ञान में व्यभिचरित है, क्योंकि इसमें विशिष्टज्ञानत्वरूप हेतु के रहने पर भी विशेषण-विशेष्यभावसम्बन्ध-निमित्तत्व नहीं रहता।
यह जो श्री भवनाथ ने कहा है कि “आगमसन्निधिहीनस्यापि उत्पन्नवस्तुपरतन्त्रतया भानादेव संयोगविलक्षण: कल्पितः समवायशब्दवाच्यः" (नयवि० पृ० ९९)। ('इह भूतले घट:'-यहाँ पर जैसे घट पदार्थ का आगम (आप्ति) अथवा पहले से ही सन्निहित (विद्यमान) है, अत: उसका भूतल के साथ संयोग सम्बन्ध मान कर उक्त विशिष्ट ज्ञान का निर्वाह किया जाता है, वैसे 'इह घटे घटत्वम्'-ऐसी प्रतीति में घटत्व जाति न कहीं से आई है और न वहाँ पहले से
सन्निहित थी, अतः घटत्व जाति का वैशिष्ट्य-बोध संयोग से विलक्षण जिस तत्कालोत्पद्यमान वस्तु पर निर्भर है, उसे 'समवाय' शब्द से अभिहित किया जाता है) ।
श्री भवनाथ के उक्त कथन में जिज्ञासा होती है कि, क्या उक्त जात्यादि का वैशिष्ट्य-भान समवाय से वैसे ही व्याप्त हैं, जैसे धूम अग्नि से ? अथवा उक्त भान समवाय के बिना वैसे ही अनुपपन्न है, जैसे पीनत्व रात्रि-भोजन के विना ? उक्त भान और समवाय का अन्यत्र कही सहचार-दर्शन न होने के कारण व्याप्ति-ग्रहण सम्भव नहीं और उक्त भान समवाय के बिना अनुपपन्न भी नहीं, क्योंकि भेदाभेदात्मक तादात्म्य सम्बन्ध से उसकी उपपत्ति हो जाती है ।
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