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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि ६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् ) ६२५ / १२४८ अनुपलब्धि-बाधित है, अतः वेदों में प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरगृहीतार्थपूर्वकत्व का अभाव मानना स्वाभाविक है) । सोपाधि हेतु अपने साध्य का साधक नहीं होता । शङ्का - प्रमाणान्तरगृहीतार्थपूर्वकत्व को यदि पौरुषेयत्व का प्रयोजक माना जाता है, तब अष्टका श्राद्धादि के विधायक मन्वादि स्मृति-वाक्य भी अपौरुषेय हो जायेंगे, क्योंकि वे भी प्रत्यक्षादीतरप्रमाणगृहीतार्थपूर्वक नहीं है, उनके प्रतिद्ध एवं मृत पितृगणों का प्रत्यक्षतः दर्शन सम्भव नहीं । समाधान- अष्टकादि विधायक स्मार्त वाक्य भी अपने से इत्तर वेदवाक्यों के द्वारा विहित कर्म के ही प्रतिपादक है, वैदिक ऋषियों ने ही वेद के द्वारा अष्टकादि कर्मों का प्रथम ज्ञान प्राप्त कर अपने स्मृति ग्रन्थों में उपनिबद्ध कर दिया, अतः उनका भी मूल प्रमाण वेद ही है । (महर्षि जैमिनि ने अपने मीमांसा दर्शन के स्मृत्यधिकरण (१/३/१) में विचार किया है कि 'अष्टकाः कर्तव्याः' (आश्वल. गृ. सू.) इस स्मृति-वाक्य से विहित अष्टका श्राद्ध का मन्त्र (“यां जनः प्रतिनन्दन्ति रात्रि धेनुमिवायतीम् । संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु समुङ्गली ।। अष्टकार्य सुराधसे स्वाहा ") वेद मैं है । सात संस्थाओं में यह पहला कर्म है । मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन मासों की कृष्णपक्षीय सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों में चार-चार अष्टका कर्म किए जाते हैं, सब मिलाकर बारह श्राद्ध हो जाते हैं । इन कर्मों के विधायक स्मृति वाक्यों की धर्म में प्रमाणता स्थापित करते हुए संशयादि का प्रदर्शन ( न्यायमाला में) किया गया है- अष्टकादिस्मृतेर्धर्मे न मात्वं मानताथवा । निर्मूलत्वान्न मानं सा वेदार्थोक्तौ निरर्थता ।। वैदिकैः स्मर्यमाणत्वात् सम्भाव्या वेदमूलता । विप्रकीर्णार्थसंक्षेपात् सार्थत्वादस्ति मान्ता ॥ |] माता-पिता के सम्बन्ध से उत्पन्न पाञ्चभौतिक शरीरवाले पुरुषों के वाक्यों में ही पुरुष - स्वातन्त्र्यात्मक पौरुषेयत्व मा जाता है, वेद-वाक्य वैसे नहीं, अतः वेद-वाक्यों में पौरुषेयत्व - साधक वाक्यत्व हेतु विशेषविरुद्ध है । इतना ही नहीं, उक्त वाक्यत्व हेतु प्रतिहेतु-विरुद्ध भी है, प्रति हेतुप्रयोग इस प्रकार है - (१) विप्रतिपन्नः कालो न वेदशून्यः, कालत्वात् सम्प्रतिपन्नवत् । (२) विमतं वेदाध्ययनं परतन्त्राध्येतृकम्, वेदाध्ययनत्वात्, सम्प्रतिपन्नाध्ययनवत्। (३) आत्मत्व वेदकतृसमवेतं न भवति, जातित्वाद्, गोत्ववत् । (वेद - वाक्यों में पौरुषेयत्व सिद्ध करनेवालों की तीन मान्यताएँ हो सकती हैं - (१) कोई अतीत काल ऐसा भी था, जब वेद नहीं थे, वेदों की प्रथम प्रथम रचना हुई । (२) ऐसा भी कोई अतीत समय होगा, जब किसी ने अध्ययन किए बिना ही प्रथम बार अध्यापन आरम्भ किया । (३) आत्मा नाना है, इन में कोई न कोई वेद का कर्त्ता रहा होगा । इन तीनों का परम तात्पर्य पौरुषेयत्व साधन में ही है, अत: इन तीनों मान्यताओं का खण्डन क्रमशः ऊपर कथित तीनों अनुमानों में किया गया है, फलतः वे तीनों अनुमान प्रत्यनुमान और उनके तीनों हेतु प्रतिहेतु कहलाते हैं) । शङ्का-जैसे वैदिक वाक्यों में अपौरुषेयत्व सिद्ध किया जाता है, वैसे ही महाभारतादि के वाक्यों में भी अपौरुषेयत्व क्यों नहीं सिद्ध किया जा सकता ? समाधान-महाभारतादि के कर्त्ता महर्षि व्यासादि का दृढ स्मरण उन में पौरुषेयत्व का निर्णय दे रहा है, अतः वहाँ अपौरुषेयत्व की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नैयायिकों ने स्पष्ट कह दिया है कि "नानुपलब्धे न निर्णीते न्यायः प्रवर्तते " ( न्या. भा. पृ. ४) । अर्थात् जहाँ पर साध्य की सिद्धि या बाध नहीं, किन्तु साध्य का सन्देह होता है, वहाँ ही किसी हेतु के द्वारा साध्य की सिद्धि की जा सकती है । महाभारतादि वाक्यों में पौरुषेयत्व की सिद्धि दृढतर कर्तृस्मरण से हो चुकी है, तब वहाँ अपौरुषेयत्व बाधित होने के कारण सिद्ध नहीं किया जा सकता)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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