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________________ ६२४/१२४७ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) शङ्का-कार्य का यदि कोई कर्ता नहीं माना जाता, तब दण्डादि अचेतन कारण किसी चेतन कर्ता से अधिष्ठित न होकर कार्योत्पत्ति की अनुकूल दिशा में स्वयं व्यापृत्त क्योकर होंगे ? क्योंकि तन्तुवाय (जुलाहे) के बिना तन्तु, तुरी (करघे की वह लडकी, जिसमें बाने का सूत भरा जाता है) इत्यादि अचेतन उपकरण अपने-आप पट बनाने के लिए सक्रिय होते नहीं देखे जाते । समाधान-जैसे आप (तार्किकों) के मतानुसार ईश्वरीय शरीरव्यापार के बिना ही अचेतन उपकरण क्षित्यादि की रचना में लग जाते है, वैसे ही हमारे (भाट्ट) मत में भी तुरी वेमादि उपकरण-समूह पट बुनने में प्रवृत्त हो जायेगा । जगत् का कर्ता यदि कोई सर्वज्ञ सर्वहितैषी ईश्वर मान भी लिया जाता है, तब भी विभिन्न देशों में बिखरे पटादि कार्य के उपकरण कदाचित् और किसी ही देश में पटोत्पत्ति करने के लिए एकत्र क्यों होते हैं, सदा सर्वत्र क्यों नहीं ? व्यापकीभूत ईश्वर द्वेष-रहित है, अत: उस की इच्छा और प्रयत्न सार्वकालिक और सार्वदेशिक ही हैं, कादचित्क और क्वाचित्क नहीं । जीवों के अपने अदृष्टों को यदि नियामक माना जाता है, तब उन्हीं के आधार पर अचेतन उपकरणों की प्रवृत्ति भी निभ जाती है, । है. पथक तार्किकों का ईश्वर मानना व्यर्थ है (चिदानन्द पण्डित का भी स्पष्ट कहना है-"अपि सिद्धेऽपि ईश्वरकर्त्तरि कथं भिन्नदेशकालानां कार्यानुगुणतया परस्परोपसर्पणम् ? ईश्वरेच्छाप्रयत्नाभ्यामिति चेत्, कथं ताभ्यामपि सकलदेशकालप्रवृत्ताभ्यां कदाचिदेव क्वचिदेवोपसर्पणनियम: ? कादाचित्कचेतनादृष्टपरिपाकादिति चेत्, तर्हि तत एवाङ्गीकरणीयात् कारणानां परस्परसन्निधानम्, कृतमीश्वरपरिकल्पनेन ?" (नीति० पृ० १९०)। वैदिक ईश्वर तो परम कारुणिक और सर्वथा हमारे अनुकूल है । तर्क-गम्य कर्तृभूत ईश्वर के समान ही जगत् संहर्ता ईश्वर का भी निराकरण हो जाने के कारण जगत् का आत्यन्तिक विनाश भी प्रसक्त नहीं होता, क्योंकि जगत् का अत्यन्त विनाश वैदिक आचार्यों को सम्मत नहीं, अन्यथा महनीय, वेद-मार्ग का ही विनाश हो जायेगा ।।१४ ।। ईश्वरो ननु लोकादौ वेदानपि विधास्यति । ततो न वेदमार्गाणां विच्छेदो दोषमावहेत् ।।१५।। सोपाधिकं विरुद्धं च विशेषप्रतिहेतुभिः । वाक्यत्वं नैव वेदानां पौरुषेयत्वसाधकम् ।।१६।। अत्र प्रामाण्यविषये वादिनो बहुधा जगुः । वदन्ति केचित् प्रामाण्यमप्रामाण्यामिति स्वतः ।।१७।। उभयं परत: प्राहुरक्षपात्पक्षिलादयः। अप्रामाण्यं स्वतस्तत्र प्रामाण्यं परतो विदुः ।।१८।। बौद्धा मीमांसकास्तत्र प्रामाण्यं तु स्वतो विदुः । अप्रामाण्यं तु परतस्तत्र चिन्ता विधीयते ।।१९।। शङ्का-महाप्रलय मान लेने पर भी वैदिक मार्ग का विनाश प्रसक्त नहीं होता, क्योंकि पुनः सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर वेदों का भी निर्माण कर देगा, अव्याहत वैदिक धारा अपने पूर्व रूप में प्रवाहित हो जायगी । वेदों में पुरुष-कृतित्व अनुमान-सिद्ध भी है-'वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि, वाक्यत्वाद्, भारतादिवाक्यवत् ।' समाधान-'वाक्यत्व' हेतु वेदों में पौरुषेयत्व का साधक नहीं हो सकता, क्योंकि वह (१) सोपाधिक है, (२) प्रतिहेतु-विरुद्ध या प्रति हेतुओं से आहत (सत्प्रतिपक्षित) भी है । (१) महाभारतादि लौकिक वाक्यावलि का प्रणयन करने से पहले महर्षि वेदव्यास ने उसकी प्रतिपाद्य विषय वस्तु को अपनी आंखों से भली प्रकार देखा था, अतः प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरगृहीतार्थपूर्वकत्व ही महाभारत में वैयासिकत्वरूप पौरुषेयत्व का साधक होता है. केवल वाक्यत्व नहीं, फलतः “प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तरगृहीतार्थपूर्वकत्व" ही उक्त वाक्यत्व हेतु की उपाधि है, (क्योंकि महाभारतादि लौकिक वाक्यों में वह पौरुषेयत्वात्मक साध्य का व्यापक तथा वेद रूप पक्ष में साधन का अव्यापक है । वेदार्थ का साक्षात्कार करनेवाला पुरुष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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