SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 650
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम्) ६२३/१२४६ ईश्वरकर्तृकत्वेन ही प्रामाण्य मानते हैं-"तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्" (वै० सू० १/१/३) । अत: वेद का प्रामाण्य सिद्ध होने पर ईश्वर का प्रामाण्य और ईश्वर का प्रामाण्य सिद्ध होने पर वेद का प्रामाण्य सिद्ध होता है । "क्षित्यादिकं सकर्तृकम्, कार्यत्वाद्, घटवत्'-इस अनुमान से भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ यह जिज्ञासा होती है कि ईश्वर शरीरधारी है ? अथवा नहीं ? उसे शरीरी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी व्यक्ति को भी उसके शरीर की उपलब्धि नहीं होती और तार्किकगण ईश्वर को शरीरी मानते भी नहीं । ईश्वर को अशरीरी मानने पर कर चरणादि के विना वह जगत् का निर्माण नहीं कर सकेगा । शरीर के विना कोई भी व्यक्ति किसी कार्य का निर्माण करते नहीं देखा गया, अत: अशरीरी ईश्वर में कर्तृत्व-साधक अनुमान विशेष विरुद्ध है, विशेष-विरोध भी अनुमान का दोष होता है-यह विगत पृ० ८० पर कहा जा चुका है ।।१३।। [श्री चिदानन्द पण्डित भी कहते हैं-“अपि च विशेष-विरुद्धं कार्यत्वम्", (नीति० पृ० १८५) ।] दूसरी बात यह भी है कि, घटादि कृत्रिम पदार्थ किसी शरीरी व्यक्ति के द्वारा बनाए गए हैं और क्षित्यादि प्राकृत पदार्थ अशरीरी ईश्वर के रचे हैं-ऐसा भेद-ज्ञान आप (तार्किकों) को कार्यगत जिस सन्निवेशविशेष (बनावट) को देखकर होता है, वह “सन्निवेशविशेषवत्ता" ही सकर्तृकत्व-साधक कार्यत्व हेतु में उपाधि होने के कारण अप्रयोजकता भी है । [अप्रयोजकता का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हुए चिदानन्द पण्डित ने कहा है-"येन पर्वतादिभ्यो व्यावृत्तेन विशिष्टव्यवहारहेतुविशिष्टानुमानलिङ्गहेतुत्वेन वादिप्रतिवादिभ्यामवश्यमिष्टेन सन्निवेशविशेषयोगित्वलक्षणेन विशेषण चैत्यादेः शरीरिकर्तृकत्वानुमानं तद्विशेषप्रयुक्तव्याप्त्युपजीवि कार्यत्वं न सकर्तृकत्वे प्रयोजकम्" (नीति. पृ. १८४)।] उक्त कार्यत्व हेतु प्रतिहेतुविरुद्ध भी है, प्रतिप्रयोग इस प्रकार है-'आत्मत्वं क्षित्यादिकर्तृव्यक्तिसमवेतं न भवति, जातित्वाद्, गोत्ववत्' । इसी प्रकार द्रव्यत्व और सत्त्व को भी पक्ष बनाकर प्रयोग किया जा सकता है । (श्री चिदानन्द भी कहते हैं-"प्रतिहेतुविरुद्ध कार्यत्वम् । तथा हि-आत्मत्वं क्षित्यादिकर्तृव्यक्तिसमवेतं न भवति, जातित्वाद्, गोत्ववत्। एवं द्रव्यत्वसत्त्वेऽपि पक्षीकृत्य वक्तव्यम्" (नीति० पृ० १९१) । इस प्रकार पर-मत का निरास हो जाने पर स्वकीय मत की स्थापना के लिए अनुमान-प्रयोग इस प्रकार किया जा सकता है-क्षित्यादयः कर्तृशून्याः, शरीरिजन्यत्वाभावाद्, आत्मवत् (नीति तत्त्वाविर्भाव पृ० १९० पर भी कहा है"दूषिते परोक्तानुमाने स्वपक्षसिद्ध्यर्थमनुमानमुच्यते-क्षित्यादिकमकर्तृकम्, शरीर्यजन्यात्वाद्, गगनवत्") । शङ्का-क्षित्यादि का यदि कोई कर्ता नहीं माना जाता, तब क्षित्यादि में अनुभूयमान कार्यत्व कैसे उपपन्न होगा ? प्रत्येक कार्य के तीन कारण होते हैं-(१) उपादान (समवायिकारण), (२) निमित्त कारण और (३) असमवायिकारण। उनमें कार्य अपना स्वरूप-लाभ करने के लिये जिस पदार्थ का उपादान करता है, उसे उपादान कारण कहते हैं, जैसे तन्तु पट के उपादान कारण होते हैं । उपादान कारण में प्रत्यासन्न होकर जो कार्य का अनन्यथासिद्ध कारण हो, वह असमवायिकारण कहा जाता है, जैसे कि तन्तु-संयोग पट के असमवायिकारण होते हैं । उक्त द्विविध कारणों से भिन्न कारण को निमित्त कारण कहते हैं, जैसे कि तन्तुवाय (जुलाहा) और वेम (करघे की वह लकडी, जिस पर बुन-बुन कर कपडा लिपटता जाता है) इत्यादि । अतः क्षित्यादि के भी तीनों कारणों के सिद्ध होने पर ही उसमें कार्यत्व सिद्ध होगा, अन्यथा नहीं । समाधान-हमारे (भाट्ट) मत में त्रिविध कारण की अपेक्षा नहीं मानी जाती, क्योंकि प्राकट्यरूप कार्य अपने अतीत और अनागत समवायी असमवायिकारण की अपेक्षा किए बिना केवल निमित्तकारणीभूत ज्ञान से उत्पन्न होता देखा जाता है । फलतः कारण मात्र के बिना कार्य की उत्पत्ति उत्पन्न नहीं होती, अत: कारणमात्र की कल्पना की जा सकती है, कर्त्तादि की व्यवस्था तो यथादर्शन ही मानी जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy