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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम् ) वैसे ही परमाणु- पर्यन्त विनाश कर डालता है, जैसे बालक कच्चे घडे को चूरचूर कर देता है । (आचार्य प्रशस्तपाद कहते हैं- " सकलभुवनपतेर्महेश्वरस्य संजिहीर्षासमकालं पृथिव्युदकज्वलनपवनानामापरमाण्वन्तो विनाशः, ततः प्रविभक्ताः परमाणवोऽवतिष्ठन्ते । पुनः प्राणिनां भोगभूतये महेश्वरसिसृक्षानन्तरं पवनपरमाणुषु कर्मोत्पत्तौ तेषां परस्परसंयोगेभ्यो
कादिप्रक्रमेण महान् वायुः समुत्पन्नो नभसि दोधूयमानस्तिष्ठति" (प्र० भा० पृ० २२) ।
भाट्ट-मत-वातायन के झरोखे से अन्दर आ रही सूर्य किरणों की प्रकाश-रेखा में उडते हुए जो नन्हें-नन्हें कण खुली आँखों से देखे जाते हैं, उन्हें ही भाट्टगण परमाणु मानते हैं। उनसे भिन्न सूक्ष्मतम अदृश्य परमाणुओं की कल्पना में न कोई प्रमाण है और न कोई लाभ ।
शङ्का-कथित सूर्य-रश्मियों में जो कण नेत्रों के द्वारा देखे जाते हैं, वे त्रसरेणु हैं, उनके आरम्भक सूक्ष्मतम कणों को परमाणु कहते हैं । 'वातायनगतः पदार्थोऽवयवी, मध्यममहत्त्वाद्, घटवत्' इस अनुमान के द्वारा त्रसरेणुओं के आरम्भक सूक्ष्मतम अवयवों (परमाणुओं) की सिद्धि होती है । त्रसरेणुओं में महत्त्व असिद्ध है - ऐसो आशङ्का नहीं कर सकते, क्योंकि 'त्रसरेणवः महान्तः, दृश्यद्रव्यत्वाद्, घटादिवत्' - इस अनुमान के द्वारा उनमें महत्त्व सिद्ध जाता है ।
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समाधान—पदार्थों में महत्त्व और अल्पत्व आपेक्षिक होते हैं, यदि त्रसरेणु की अपेक्षा कोई न्यून कण प्रत्यक्ष - सिद्ध होते, तब त्रसरेणुओं में अवश्य महत्त्व माना जा सकता था, किन्तु वैसे कोई कण उपलब्ध नहीं होते, अतः कथित अनुमान योग्यानुपलब्धि से बाधित होने के कारण अप्रमाण है । यदि अवयवित्व और महत्त्व हेतुओं के द्वारा त्रसरेणु के अवयव सिद्ध किए जाते है, तब उन अवयवों की अवयव - परम्परा भी उन्हीं हेतुओं से सिद्ध होगी, क्योंकि घटादि अवयवी द्रव्य के आरम्भक कपालों और उनकी आरम्भक कपालिकाओं में अवयवित्व और महत्त्व - दोनों देखे जाते हैं, अतः ‘त्रसरेण्वारम्भकाः सावयवाः, महदारम्भकत्वात् कपालवत् ।' 'त्रसरेण्वारम्भकारम्भकाः, सावयवाः, महदारम्भकारम्भकत्वात्, कपालिकावत्' - इन अनुमानों के द्वारा अविश्रान्त अवयव - परम्परा के सिद्ध हो जाने पर मच्छर और हाथी का अनन्तावयवारब्धत्वरूप समान परिमाण सिद्ध हो जायगा, जो कि सर्वथा दृष्ट-विरुद्ध है, अतः हम (भाट्टगण) लोक-प्रसिद्ध परमाणुओं का ही आदर करते हैं । ( श्री चिदानन्द पण्डित कहते हैं- “ तेषां महत्त्वात् तदतिरिक्तपरमाणुकल्पनमिति चेत्र, तेषां महत्त्वासिद्धेः । अन्यथा तदवयवानामपि तथैव महत्त्वसिद्धेरणुपरिमाणतरतमभावस्य न क्वचिदपि विश्रमः " ( नीति० पृ० ८७) ।
योगी के योगज धर्म से जन्य प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा भी अतीन्द्रिय परमाणुओं की सिद्धि नहीं हो सकती, 'योगिप्रत्यक्षम् इन्द्रियसन्निकर्षजन्यम्, प्रत्यक्षत्वाद्, अस्मदादिप्रत्यक्षवत्' । योगीन्द्रियम् अतीन्द्रियविषयकं न भवति, इन्द्रियत्वाद्, अस्मदादीन्द्रियवत्’-इत्यादि अनुमानों के द्वारा योगी के प्रत्यक्ष में अतीन्द्रिय पदार्थों के ग्रहण की क्षमता सिद्ध नहीं होती, वार्तिककार ने (श्लो० वा० पृ० ८० पर) स्पष्ट कहा है- यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यात् न रूपे श्रोत्रवृत्तिता ।।
यदि वैशेषिक-सम्मत अतीन्द्रिय परमाणुओं को मान भी लिया जाय, तब भी हमारी कोई क्षति नहीं ( श्री चिदानन्दपण्डित कहते हैं-"यद्वा प्रमाणबलमाश्रित्य परमाणूनामतीन्द्रियत्वं द्व्यणुकादिक्रमेणारम्भकत्वमित्यादिसिद्धावपि नास्माकं किञ्चिदनिष्टम् " ( नीति० पृ० ८७) ।]
वैशेषकों का जो कहना है कि, जगत् ईश्वर की रचना है, वह उचित नहीं, क्योंकि वेद को छोडकर ईश्वर के सद्भाव में अन्य कोई प्रमाण नहीं और वेद को प्रमाण मानने में अन्योऽन्याश्रयादि दोष होते हैं, क्योंकि तार्किकगण वेदों में
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