SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 653
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२६/१२४९ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६, मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमेयम) शङ्का-"वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य निःसृताः", "ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायोः सामवेद आदित्यात्", "तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे"-(ऋ. १०/६०/९) इत्यादि वैदिक वाक्यों से ही जब उन में पौरुषेयत्व (पुरुष-कृति-जन्यत्व) प्रतिपादित हो रहा है, तब वहाँ भी बाधित हो जाने के कारण अपौरुषेयत्व क्योंकर सिद्ध होगा? समाधान-उक्त वाक्य परस्पर विरुद्धार्थक एवं प्रमाणान्तर से बाधित भी हैं, अत: “आदित्यो यूपः' इत्यादि वाक्यों के समान अर्थवाद मात्र माने जाते हैं । इसी प्रकार काठकादि शाखा-संज्ञाएँ भी कठादि महर्षियों को वेद का कर्त्ता सिद्ध नहीं करती, अपितु प्रवचन की असाधारणता के कारण कठादि का नाम वेद से जुड़ गया है, सूत्रकार का यही निर्णय है"आख्या प्रवचनात्" (जै.सू. १/१/३०) । प्रवचन का अर्थ 'प्रकृष्ट अध्ययन' है । कठ-प्रोक्त शाखा के अध्येताओं को 'कठाः' कहा जाता है, क्योंकि “कठचरकाल्लुक्" (पा.सू.४/३/१०७) इस सूत्र से प्रोक्तार्थक प्रत्यय का लूक हो जाता है। वहाँ 'तेषामाम्नाय: काठकम'-इस अर्थ में 'वत्र' प्रत्यय का विधान किया गया है. अत: वेद वा कठादि का स्वातन्त्र्य अवगत नहीं होता । वैदिक वाक्यों में पुरुषों का किसी प्रकार भी प्रवेश नहीं होता, अत: वेद में अप्रामाण्य की गन्ध तक नहीं आ सकती, क्योंकि शब्दों में अप्रामाण्यादि दोष पुरुष के सम्पर्क से ही आया करते हैं । शङ्का-शब्द में स्वतः कोई गुण भी नहीं होता, पुरुष के गुणों से ही शब्द में गुण आया करते हैं और वे ही शब्द में किसी प्रकार का दोष नहीं आने देते । पुरुष का सम्पर्क न मानने पर वैदिक शब्दों में गुणाधान न हो सकने के कारण अप्रामाण्य प्रसक्त क्यों नहीं होगा ? समाधान-कथित आशङ्का तब की जा सकती थी, जब कि हम (भाट्ट गण) ज्ञान में गुण-प्रयुक्त प्रामाण्य मानते । हम लोग वैसा नहीं मानते, अतः शब्द के साथ पुरुष का सम्पर्क न होने पर गुणाभाव के समान दोषाभाव भी रहता है, उसी से प्रामाण्य की उपपत्ति हो जाती है, जैसा कि वार्तिककार कहते हैं-"दोषाभावात् प्रमाणता" (श्लो० वा० पृ० ६६)। ___ भाट्टमत के अनुसार सभी प्रमाणों में प्रामाण्य स्वतः ही माना जाता है और अप्रामाण्य कारणगत दोषों के कारण से माना जाता है, जैसे कि चक्षुरादि में पित्तादि दोषों के रहने पर शङ्खादि में पीतत्व-भ्रम हो जाता है और उस दोष का अभाव होने मात्र से शंख के वास्तविक शुक्लिमगुण का अवधारण होता है । यहाँ पर प्रामाण्य के विषय में कुछ विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । ज्ञानगत प्रामाण्य (प्रमात्व) के विषय में वादिगणों के चार दृष्टिकोण हैं-(१) सांख्याचार्य प्रामाण्य और अप्रामाण्य-दोनों को स्वतः ही सिद्ध करते है । (२) अक्षपाद और पक्षिल स्वामी (न्याय-भाष्यकार वात्स्यायन मुनि) आदि ण्य और अप्रमाण्य-दोनों को परतः (कारणगत गुण और दोष से प्रयुक्त) मानते हैं । (३) बौद्ध मतानुसार अप्रामाण्य स्वत: और प्रामाण्य परत: होता है । (४) मीमांसकाचार्य कहते हैं कि, प्रामाण्य को स्वत: और अप्रामाण्य को परतः मानना ही उचित है । यहाँ चारों पक्षों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया जाता है ।।१७-१९ ।। (१) सांख्याचार्यों का कहना है-सभी प्रमाणों में प्रामाण्य और अप्रामाण्य-दोनों स्वतः निहित होते हैं । कारणगत गुण और दोष के द्वारा उन्हीं की अभिव्यक्ति होती है, अत्यन्त असद् पदार्थ की कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती । अत्यन्त असत् की उत्पत्ति मानने पर आकाशपुष्पादि की भी उत्पत्ति होनी चाहिए । इसी लिए अपनी अभिव्यक्ति के पूर्व घटादि भाव पदार्थों को हम लोग (सांख्यानुयायी) मृत्तिका में सत् ही मानते हैं । फिर भी कारण-व्यापार अनर्थक नहीं होता, क्योंकि कारण में अव्यक्तरूप से विद्यमान कार्य की अभिव्यक्ति में उसका सार्थक्य हो जाता है । अत: जैसे कारक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy