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________________ ६१४ / १२३७ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ अपि चेन्द्रियसंबन्धयोग्यतैव हि वस्तुनः । प्रत्यक्षत्वं उपाधिः स्याद्व्याप्त्यसिद्धास्ततोऽखिलाः । । १६९ ।। प्रत्यक्षत्वे ह्यभावस्य स्थिते कश्चित् कथंचन । कष्टोऽपि संनिकर्षः स्यात्तदेवाद्यापि न स्थितम् ।।१७०।। प्रतियोगिस्मृतिर्न स्यादादितो निर्विकल्पके । ततश्च सविकल्पेनैवाभावज्ञानमिच्छसि ।।१७१।। अभावाख्यं तु वस्त्वेव नास्तीत्याह प्रभाकरः । तेन प्रमाणचिन्तामेवैनां परिहसत्यसौ ।। १७२ ।। तमप्यपाकरिष्यामः पदार्थानां समर्थने । तदेवं निष्प्रतिद्वन्द्वा षट्प्रमाणी समर्थिता ।।१७३ ।। शङ्का-अभाव के साथ इन्द्रिय का विशेषण - विशेष्यभाव सम्बन्ध है, जिसकी चर्चा पूर्व में आ चुकी हैं । फलतः उक्त उपाधि में साधन की भी व्यापकता ही सिद्ध होती है, अव्यापकता नहीं । समाधान- यदि अभाव में प्रत्यक्षत्व सिद्ध हो जाता, तब अवश्य किसी न किसी प्रकार अभाव के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध स्थापित करने का कष्ट भी सहन किया जा सकता था, किन्तु अभाव में प्रत्यक्षता अभी तक सिद्ध नहीं हो पाई। दूसरी बात यह भी है कि, अभाव और भूतल में विशेष्य-विशेषणभाव की असिद्धि भी है - 'अभावभूतले विशेषणविशेष्यभावरहिते, सम्बन्धान्तररहितत्वात्, मेरुविन्ध्यवत् । ' ( अर्थात् 'घटवद् भूतलम्' - यहाँ पर घट विशेषण और भूतल विशेष्य है, क्योंकि भूतल के साथ घट का संयोग सम्बन्ध है, उस संयोग का प्रतियोगीभूत घट विशेषण और अनुयोगीभूत भूतल विशेष्य है, किन्तु अभाव और भूतल में वैसा विशेषणता और विशेष्यता का नियामक कोई सम्बन्ध नहीं, अतः उनमें विशेषण - विशेष्यभाव की सत्ता ही सिद्ध नहीं होती) असत् विशेषण - विशेष्यभाव को सन्निकर्ष नहीं बनाया जा सकता । एक बात ओर भी है कि, तार्किकगण अभाव का निर्विकल्पक बोध नहीं मानते, क्योंकि अभाव - ज्ञान में प्रतियोगी का स्मरण आवश्यक है, अभाव-ज्ञान को आरम्भ से ही निर्विकल्पक मानने पर प्रतियोगी का स्मरण नहीं होगा, जैसा कि श्री चिदानन्द पण्डित ने भी कहा है- " अभावस्य प्रतियोगिव्यङ्ग्यत्वेन निर्विकल्यकानर्हत्वात्" ( नीति० पृ० १७९) । इस लिए भी अभाव में प्रत्यक्षता का अभाव सिद्ध होता है- ' अभाव: प्रत्यक्षो न भवति निर्विकल्पकानर्हत्वाद्, अतीन्द्रियवस्तुतवत् । फलतः नैयायिकों की मान्यता का निरोध हो जाने पर यह निर्विरोध सिद्ध हो जाता है कि अनुपलब्धि प्रमाण का अभाव विषय है ।' आचार्य प्रभाकर कहते हैं कि, अभावसंज्ञक कोई पदार्थ होता ही नहीं, अतः अभाव का ग्रहण करने के लिए इस प्रमाण - चिन्ता का वे उपहास उडाते हैं, उनका भी अपाकरण प्रमेयं निरूपण में किया जायेगा । यहाँ प्रत्यक्षादि छः प्रमाणों का यह संक्षिप्त समर्थन प्रस्तुत किया गया । ये तु संभवमैतिह्यमिति मानान्तरं विदुः । तेऽनुमाने च शाब्दे च चोरवृत्तिमुपाश्रिताः ।।१७४।। यत्सहस्रादिसङ्ख्यासु शतादेः सत्त्ववेदनम् । खार्यादिपरिमाणेषु प्रस्थादिग्रहणं च यत् ।।१७५ ।। तत्संभव इति प्राहुरन्तर्भावो हि संभवः । तच्चानुमानिकं ज्ञानमिच्छन्ति स्वच्छचेतसः ।।१७६ ।। एकस्य तावद् द्वित्वादौ समावेशनिरीक्षणात् । ज्ञायतेऽधिकसङ्ख्यायामल्पसङ्ख्यासमन्वयः । । १७७।। ततश्च व्याप्तिविज्ञानादल्पसङ्ख्याः शतादयः । सहस्त्रादिषु गम्येरन्नधिकत्वेन हेतुना ।।१७८ ।। तथैव परिमाणेष्वप्यधिकादल्पवेदनम् । ऊह्यमित्यनुमानत्वसंभवात्संभवो हतः । । १७९ ।। प्रवादमात्रशरणं वाक्यमैतिह्यमुच्यते । वटे वटे वैश्रवणस्तिष्ठतीत्यादिकं यथा ।। १८० ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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