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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ६१५/१२३८ तत्प्रायो मूलराहित्यादप्रमाणतयेष्यते । नन्वेवं कृष्णरामादिकथापि हि कथं हि वः ।।१८१।। मैवं स्मृतिवदाप्तोक्तिप्रसिद्ध्या मूलसंभवात् । मानान्तराविरोधाञ्च शाब्दमेव हि तादृशम् ।।१८२।। किंच कृष्णादिवृत्तान्तसाधुता साधु साधिता । न्यायनिर्णयकारेण पुरुषोत्कर्षसाधने ।।१८३।। तस्मात्कुत्रचिदैतिचं सत्यं चेच्छाब्दमेव तत् । अतः षडेव मानानि मानयन्ति मनीषिणः ।।१८४ ।। राम षड् युक्तयो लोके याभिः सर्वोऽनुदृश्यते । इति रामायणेऽप्युक्तं तस्मात् सर्वे सुमङ्गलम् ।।१८५।। सम्भवादि प्रमाण का अन्तर्भाव-जो (१) सम्भव और (२) ऐतिह्य नाम के दो अन्य प्रमाण माने जाते हैं, वे क्रमशः अनुमान और शब्द में विलीन हो जाते हैं-(१) सहस्रादि महा संख्या में जो शतादि अवान्तर संख्या की सत्ता का अथवा खारी आदि महा परिमाणों में प्रस्थादि अवान्तर परिमाणों का जो ज्ञान होता है, उसे ही सम्भव प्रमाण कहा करते हैं (जि व्यक्ति के पास एक हजार रुपये हैं, उसे अपने-आप ज्ञान हो जाता है कि सौ रुपये मेरे पास हैं, क्योंकि हजार की संख्या में शतादि का समावेश है । इसी प्रकार एक खारीभर अन्न जिसके पास है, उसे अपने आप यह बोध हो जाता है कि एक प्रस्थ अन्न मेरे पास है, क्योंकिपलं प्रकुञ्चकं मुष्टिः कुडवस्तच्चतुष्टयम् । चत्वारः कुडवाः प्रस्थः चतुःप्रस्थमथाढकम् ।। अष्टाढको भवेद् द्रोणो द्रोणो द्विद्रोण: सूर्पमुच्यते । सार्धसूर्पो भवेत् खारी द्विद्रोणा गोण्युदाहता ।। इत्यादि कोश के अनुसार भार या वजन के विशेष परिमाण विभिन्न नामों से जो कभी प्रचलित थे, उनमें खारी परिमाण कई प्रस्थों का होता था, अतः खारी के ज्ञान से प्रस्थ का ज्ञान सुलभ है) । 'सम्भव' शब्द का अर्थ अन्तर्भाव होता है। इस सम्भव-ज्ञान को प्रबुद्ध व्यक्ति आनुमानिक ही मानते हैं, क्योंकि एक और एक मिलाकर दो होते हैं, अतः दो में एक का सम्भव या समावेश नैसर्गिक है, अतः अधिक संख्या के ज्ञान से न्यून संख्या का ज्ञान हो जाता है, फलतः सहस्रादि अधिक संख्या में व्याप्ति के बल पर शतादि संख्या का ज्ञान हो जाता है । श्री वरदराज ने भी कहा है-"सम्भवो नाम सहस्रादेः शतादिविज्ञानम्, तदप्यविनाभावप्रतिसन्धानेन जायते इत्यनुमानमेव" (ता० र० पृ० ११६) । इसी प्रकार परिमाणों में भी अधिक से अल्प का ज्ञान अनुमान से ही हो जाता है, अतः सम्भव प्रमाण को पृथक् मानना आवश्यक नहीं ।।१७८।। द-परम्परा को ऐतिह्य प्रमाण कहा करते हैं (“अनन्तावसथेतिहभेषजाभ्यः " (पा० सू० ५/४/२३) इस पाणिनि सूत्र के द्वारा प्रवादार्थक ‘इतिह'-इस निपात-समुदाय से स्वार्थ में 'ज्य' प्रत्यय होता है-इतिहेवैतिह्यम् । जैसे "वटे वटे वैश्रमणः चत्वरे चत्वरे शिवः"-इत्यादि कर्मारम्भ माङ्गलिक पद्यों में प्रवाद-परम्परा वर्णित है, उसमें जो निर्मल और निराधार वाक्य हैं, वे प्रायः अप्रमाण ही माने जाते हैं। राम और कष्णादि की कथाएँ द्धमुल होने के कारण स्मृति प्रमाण के अन्तर्गत हैं, उनका प्रमाणान्तर से किसी प्रकार का विरोध नहीं । न्यायनिर्णयकारों ने राम, कृष्णादि के वृत्तान्तों की प्रामाणिकता सिद्ध की है, अतः ऐसे ऐतिह्य कथानक सत्य होने पर भी शब्द प्रमाण के अन्तर्गत माने जाते हैं । अतः छः प्रमाण ही मनीषिगण मानते हैं, रामायण में भी कहा गया है-"राम षड्युक्तयो लोके याभिः सर्वोऽनुदृश्यते"। वार्तिककारने भी (श्लो० वा० पृ० ४६९) पर कहा है इह भवति शतादौ सम्भवाद्यासहस्रात् मतिरवियुतभावात् साऽनुमानादभिन्ना । जगति बहु न तथ्यं नित्यमैतिह्यमुक्तं भवति तु यदि सत्यं नागमाद् भद्यिते तत् ।। इति प्रमाणखण्डः समाप्तः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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