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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ६१३/१२३६ नहीं हो सकता । 'अस्ति चेदुपलभ्येत'-इस वाक्य का क्या तात्पर्य है ? इसकी गहराई में जाकर सोचा जाय, तब घट भिन्न समस्त घटोपलम्भक सामग्री वहाँ सिद्ध होती है, वही योग्यता है । यह जो श्री वरदराज ने (ता० र० पृ० १०५ पर) 'अज्ञातकरणत्वात्' ऐसा कहकर अनुमान सूचित किया हैअभावज्ञानं प्रत्यक्षम्, अज्ञातकरणकत्वाद्, घटादिवत् (अर्थात् अनुमित्यादि ज्ञानों का धूमादिकरण ज्ञात होकर ही अनुमित्यादि को उत्पन्न करता है, किन्तु घटादि के प्रत्यक्ष ज्ञान का चक्षुरिन्द्रियरूप करण अज्ञात होकर ही ज्ञान का जनक माना जाता है, अतः प्रत्यक्ष ज्ञान को अज्ञातकरणक ज्ञान कहा जाता है) । उक्त अनुमान का अज्ञातकरणकत्वरूप हेतु स्मृतिज्ञान में अनैकान्तिक (व्यभिचारी) है, क्योंकि स्मृति ज्ञान के संस्कार ही करण हैं और संस्कार अज्ञात रहकर ही स्मृति के जनक माने जाते हैं, अतः स्मृति ज्ञान में प्रत्यक्षत्वरूप साध्य के न होने पर भी अज्ञातकरणकत्वरूप हेतु रह जाता है । चिदानन्द पण्डित ने भी कहा है-"स्मृतावनैकान्तिकत्वात्" (नीति० पृ० १७५) । श्री उदयनाचार्य की “भावावेशाच्च चेतसः" -इस उक्ति का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हुए श्री वरदराज ने जो कहा है कि "सर्वत्र बाह्यार्थेषु भावप्रमाणावष्टम्भेनैव मनसोऽपि ज्ञानहेतुत्वं दृष्टमित्यभावज्ञानेऽपि तथात्वमुपगम्यते सहकारित्वं नोपपद्यते" (ता० र० प० १०५) । उसके द्वारा जो अनमान सचित किया गया है'अभावज्ञानं भावरूपकरणाविष्टमनोजन्यम्, ज्ञानत्वात्, ज्ञानान्तरवत् ।' वह अनुमान भी अयुक्त है, क्योंकि इसका बाधक अनुमान इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-'अभावज्ञानम् इन्द्रियेतरकरणकम्, अभावज्ञानत्वाद्, अनुमेयाभावज्ञानवत् ।' __ "इन्द्रियदोषेण दूष्यमाणमभावज्ञानं तदेवात्मन: करणीकरोति, कारणदोषादेव हि कार्यदोषा: प्रादुर्भवन्ति" (ता० र० पृ० १०६) इस प्रकार की वरदराज-प्रदर्शित व्याप्ति के आधार पर जो अनुमान सूचित होता है-'अभावज्ञानम् इन्द्रियकरणकम, इन्द्रियदोषेण दृष्यमाणत्वाद, यथा चक्षर्दोषेण दृष्यमाणरूपज्ञानम चक्षःकरणकम' । वह अनुमान भी असिद्ध है, क्योंकि इन्द्रिय-दोष अभाव भ्रम का कारण नहीं होता, अपि तु योग्यताभ्रम ही अभाव-भ्रम का कारण होता है । (असिद्धि का ही विमलीकरण करते हुए श्री चिदानन्द पण्डित ने कहा है-"अभावज्ञानं प्रति योग्यत्वस्य ज्ञाततया हेतुत्वाद्, योग्यत्वभ्रमादेवाभावभ्रमः, नेन्द्रियदोषात् लिङ्गभ्रमादिव लैङ्गिकभ्रम इतीन्द्रियदोषानुविधायित्वस्यासिद्धत्वात्" (नीति० पृ० १७६)। 'चक्षुरभावग्राहकम्, इन्द्रियत्वात्, मनोवत्'-इत्यादि जो अनुमान किए जाते हैं, वे सब विशेषविरुद्ध है, क्योंकि इन्द्रिय स्व-सम्बद्ध विषय का ही ग्राहक है किन्त अभाव के साथ इन्द्रिय का कोई संयोगादि सम्बन्ध सम्भव नहीं नैयायिक जो विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्ध माना करते हैं, वह भी संयोगादिसम्बन्धान्तरपूर्वक ही होता है । (चिदानन्द पण्डित ने वैसे सभी अनुमानों का प्रदर्शन और निरास इस प्रकार किया है-यानि (१) चक्षुरभावग्राहकम्, इन्द्रियत्वात् मनोवत् । (२) अभावः स्वप्रतियोगिसर्वप्रमाणात्यन्तसजातीयग्राह्यः, अभावत्वाद्, अनुमेयाभाववत् । (३) सत्ता सामान्यसमवायातिरिक्ता अस्मत्प्रत्यक्षात् परावृत्ता, जातित्वाद्, गोत्वादिवद् - इत्यादीनि साधनानि, तानि बाह्येन्द्रियस्य संयोगादित्रिविधसन्निकर्षवत एव तज्ज्ञानहेतुत्वव्याप्तेरभावे च तदभावाद् विशेषरुद्धानि । किञ्च अभावः प्रत्यक्षो न भवति, अभावत्वाद्, अनुमेयाभाववत् ।' 'सत्ता अस्मत्प्रत्यक्षात्परावृत्ता, जातित्वाद्, गोत्ववद्'-इत्यादिना प्रथमस्य हेतोः सप्रतिसाधनत्वं द्वितीयतृतीययोविरुद्धाव्यभिचारित्वं च द्रष्टव्यम्" (नीति० पृ० १७६) केवल इतना ही नहीं, कथित प्रत्यक्षत्व-साधक प्रायः सभी हेतु व्याप्त्यसिद्ध भी हैं, क्योंकि वहाँ इन्द्रिय सम्बन्धादिरूप योग्यता ही उपाधि है, जो कि घटादि में प्रत्यक्षत्वरूप साध्य की व्यापक और अभावरूप पक्ष में साधन की अव्यापक है, क्योंकि अभाव के साथ इन्द्रिय का कोई सम्बन्ध नहीं बनता-यह कहा जा चुका है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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