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________________ ५८४ / १२०७ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ वह बौद्धों का कथन उचित नहीं, क्योंकि कृष्ण जन्माष्टमी को रात में रोहिणी (२७ नक्षत्रों में चौथे) नक्षत्र के दर्शन की अभिलाषा के लिए कोई व्यक्ति आकाश में पूर्व क्षितिज पर आँखें लगाए खड़ा है । कृत्तिका (तीसरे नक्षत्र ) का उदय होते ही अनुमान कर लेता है कि रोहिणी आसन्न है- 'अयमाकाशभागः रोहिण्यासत्तिमान् कृत्तिकोदयवत्त्वात् ।' इस प्रकार कृत्तिकोदय और रोहिणी की आसत्ति में जो व्याप्ति है, वह न तो तादात्म्य से प्रयुक्त होती है और न तदुत्पत्ति से । उसमें कथित बौद्ध-लक्षण अव्याप्त हो जाता है । परिशेषतः निरुपाधिकत्व के निश्चय से ही व्याप्ति की सिद्धि होती है। 'व्याप्ति', 'नियम', 'प्रतिबन्ध', 'अव्यभिचार', और 'अविनाभाव' - ये व्याप्ति के पर्याय हैं । 'व्याप्य', ‘नियम्य', 'गमक', ‘लिङ्ग', 'साधन' और 'हेतु' - ये लिङ्ग के पर्याय हैं । लिङ्ग का दर्शन तीन बार होता है - पहला व्याप्ति-ग्रहण के समय लिङ्ग-दर्शन, जैसे- महानसादि में धूम-दर्शन, दूसरा पक्ष में लिङ्गदर्शन, जैसे पर्वत में धूमदर्शन, तीसरा स्मर्यमाण व्याप्ति विशिष्ट लिङ्गदर्शन जैसे व्याप्ति-स्मरण के अनन्तर तादृशो धूमोऽत्रास्ति' । यहीं तृतीय लिङ्ग-दर्शन व्याप्य-दर्शन अभिमत है, क्योंकि उसी के अनन्तर वह्नि की अनुमिति उत्पन्न होती है । भाष्यकार ने जो कहा है – “एकदेशदर्शनाद् एकदेशान्तरेऽसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः " ( शा० भा०पृ० ३६) । वहाँ पर 'असन्निकृष्ट' पद से क्या विवक्षित है ? इस प्रश्न का उत्तर है- 'अज्ञात और अबाधित अर्थ', जैसा कि वार्तिककार ने कहा है असन्निकृष्टवाचा च द्वयमत्र जिहासितम् । ताद्रूप्येण परिच्छित्तिः तद्विपर्यतोऽपि वा ।। (श्लो० वा० पृ० ३६२) (अर्थात् भाष्यस्थ 'असन्निकृष्ट' पद के द्वारा साध्य या साध्याभाव के निश्चय की व्यावृत्ति की जाती है) । क्योंकि यदि पर्वत में पहले से ही अग्न्यादि का निश्चय हैं, तब उसकी अनुमिति अनुवाद मात्र होकर रह जाती है, प्रमा नहीं कहला सकती और अग्न्यभाव का निश्चय होने पर अग्नि बाधित हो जाती है, अतः बाधितार्थविषयक होने के कारण वन्यनुमिति प्रमा नहीं हो सकती, अतः सत्त्वेन या असत्त्वेन उभयतः वह्नि निश्चय की निवृत्ति करने के लिए अनधिगताबाधितार्थक 'असन्निकृष्ट' पद रखा गया है । शङ्का : चार्वाकों का जो कहना है कि, पर्वत में अग्निविशेष (पर्वतीय अग्नि) अनुमित्सित है, किन्तु उसके साथ महानसादि में धूम का सहचार निश्चित नहीं, क्योंकि वहाँ अग्नि सामान्य में ही धूम सामान्य की व्याप्ति गृहीत होती है। यदि अग्नि सामान्य को ही अनुमेय माना जाता है, तब उसका तो व्याप्ति-ग्रहण के समय ही निश्चय होने के कारण सिद्ध-साधन दोष हो जाता है, अतः 'असन्निकृष्ट' पद भी अयुक्त है, जैसे कि कहा गया है- विशेषेऽनुगमाभाव: सामान्ये सिद्धसाध्यता । अनुमाभङ्गपङ्केऽस्मिन् निमग्ना वादिदन्तिनः ।। ( अर्थात् विशेष (पर्वतीय) अग्नि में धूम का अनुगम व्याप्ति - ग्रह नहीं है और सामान्य अग्नि की पहले से ही सिद्धि होने के कारण सिद्ध-साधनता दोष होता है, अतः इस अनुमान भङ्गरूप कीचड में अनुमानवादी दिग्गज फँस कर रह गये हैं ।) समाधान : चार्वाकों का उक्त आक्षेप संगत नहीं, क्योंकि केवल 'वह्नित्व' और 'धूमत्व' जातियों का ही व्याप्तिग्रह नहीं होता, वैसा मानने पर 'वह्नित्वं धूमत्वेन सम्बद्धम्' ऐसा व्याप्ति - ग्रह होना चाहिए । वैसा व्याप्ति-ग्रह मानने पर धूमत्व को भी वह्नित्व जाति का सम्बन्धी होने से वह्नि मानना पडेगा । अतः विशेष पदार्थों के द्वारा ही सामान्य पदार्थों की व्याप्ति सिद्ध होती है, चिदानन्द पण्डित भी ऐसा ही कहते हैं- “सामान्ययोविंशेषोपधानेनैव व्याप्तेः " (नीति० पृ० १३९ ) । अग्न्यादि में पर्वतीयत्वादि विशेषताओं का अनुगम सम्भव नहीं, अतः पर्वतीयत्वादि धर्मों से अनालिङ्गित (अविशेषित) वह्नि और धूम की व्याप्ति माननी होगी । फलतः पर्वतवृत्तितया दृष्ट धूम पर्वतीयत्वादि विशेषणानाक्रान्त वह्नि का ही पर्वत में अनुमापक होता है । यद्यपि पर्वतीयत्वादि धर्म-रहित अग्नि सामान्य का ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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