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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ५८५/१२०८ व्याप्ति-ग्रहण काल में ही हो जाता है और वही अनुमेय भी है, तथापि ‘इदानीं पर्वतेऽग्निरस्ति'-इस प्रकार देश और काल विशेष का भी अनुमान अभीष्ट होता है, वह पहले ज्ञात न होने के कारण सिद्ध-साध्यता दोष को कोई अवकाश नहीं मिलता । श्री पार्थसारथि मिश्र ने भी कहा है - अवगतस्यापि सामान्यस्य देशान्तरकालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणादुपपन्नं प्रमेयत्वम्" (शा.दी.पृ. ६३)। व्याप्तिश्च पक्षधर्मत्वमनुमाङ्गं द्वयं विदुः । व्याप्त्या ह्युक्तप्रकारेण वह्निसामान्यवेदनम् ।।३३।। धूमस्य शैलनिष्ठत्वरूपा या पक्षधर्मता । तया पर्वतसंबन्धो वढेरप्यवगम्यते ।।३४ ।। ग्नेर्भावस्य भूयस्त्वात्तदभावोऽल्पतां व्रजेत् । धूमभावस्य चाल्पत्वात्तदभावो महत्तरः ।।३५।। तं च कौमारिलाः प्रायो नेच्छन्ति व्यतिरेकिणम् । तत्स्थाने चाभिषिञ्चन्ति पञ्चमी प्रमितिं पुनः ।।३६।। व्याप्ति और पक्षधर्मता-दोनों ही अनुमान के अङ्ग माने जाते हैं, व्याप्ति के द्वारा उक्त रीति से वह्नि सामान्य का ज्ञान होता है । धूम में जो पर्वतवृत्तिता है, उसे ही पक्षधर्मता कहा जाता है, उसके द्वारा वह्नि में पर्वत का सम्बन्ध गृहीत होता है। आचार्य प्रभाकर का जो कहना है कि - व्याप्ति-ग्रहण के समय ही धूमवान् देश में वह्निमत्त्व भी गृहीत हो जाता है, अतः पर्वत में धूमवत्त्वरूप अगृहीत अर्थ को विषय करने के कारण अनुमिति को प्रमा कहा जाता है (शालिकनाथ मिश्रने कहा है - "नन्वेवं सम्बन्धनियमावसायसमय एव यावळूमादिभावितया अग्न्यादिसम्बन्धस्यावगमाद्, धूमादिसत्तानिश्चयादधिकं निश्चेतव्यं नावशिष्यते इत्यनुमानं न प्रमाणं स्यात् । सत्यं स्यादेतद् यद्यनधिगतार्थगन्तृत्वं भवेत् प्रमाण लक्षणम्" (प्र.पं.पृ. २०५) । वह प्राभाकर मत संगत नहीं, क्योंकि उनका जो यह कहना है कि, पर्वत में धूमवत्त्व तो पहले ज्ञात नहीं था, अभी ही ज्ञात हुआ है । यदि धूमवत्त्व का ज्ञान पहले नहीं हुआ, तब धूमवत्त्वावच्छेदेन वह्निमत्त्व का ज्ञान पहले कैसे होगा, अतः धूमवान् देश में वह्निमत्त्व का ज्ञान पहले से है और धूमवत्त्व पहले से गृहीत न होकर अनुमिति के द्वारा गृहीत होता हैऐसा कहना नितान्त व्याहत है । (चिदानन्द पण्डित ने इसी तथ्य का कुछ विशदरूप में स्पष्टीकरण किया है-“ये पुनरनुमानस्य गृहीतग्राहित्वमाचक्षाणा धूमवतो वह्निमत्त्वस्य प्रागेव प्राप्तत्वाद् धूमवत्त्वमेव प्रमाणापेक्षमित्याहुः, तेषां सकलदेशकालव्यापितया धूमवत्त्वं प्रागप्राप्तम् ? प्राप्तं वा ? प्राप्तं चेत्, प्राप्तत्वादेव वह्निमत्त्ववत् तदपि न प्रमाणमपेक्षते। अथ न प्राप्तम्, तर्हि धूमवत्त्वप्राप्तिनिबन्धना वह्निमत्त्व प्राप्तिरपि नासीदिति कुतो गृहीतग्राहित्वम् ?" (नीति. पृ. १४०) । इस प्रकार वढ्यादि असनिकृष्ट पदार्थों के ज्ञान में अनुमानत्व (अनुमितित्व) सिद्ध हो गया । अनुमिति के कारण को अनुमान कहा जाता है । पूर्वोक्त प्राकट्यरूप अनुमिति का करण होने से ज्ञान अनुमान और वह्नयादिविषयक ज्ञानरूप अनुमिति का करण होने के कारण धूमादि को अनुमान कहा जाता है । प्रदर्शित अनुमान के तीन भेद होते हैं-(१) अन्वयव्यतिरेकी, (२) केवलान्वयी, (३) केवलव्यतिरेकी । इस भेद का कारण यह है कि व्याप्ति दो प्रकार की होती है-(१) अन्वय व्याप्ति और (२) व्यतिरेक व्याप्ति । साधन का सद्भाव होने पर साध्य का सद्भाव अन्वय व्याप्ति और साध्य का अभाव होने पर साधन का अभाव व्यतिरेक व्याप्ति कहलाता है। व्यतिरेको (अभावों) का व्याप्य-व्यापकभाव अन्वय से विपरीत होता है, जैसे वह्नि व्यापक और धूम व्याप्य होता है किन्तु वन्यभाव व्याप्य और धूमाभाव व्यापक हो जाता है । इसका कारण यह है कि अधिक देश में रहनेवाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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