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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ५८३/१२०६ (जै०सू० १/४/२३) । अर्थात् “अक्ताः शर्करा उपदधाति" -इस विधि वाक्य के शेष भाग में आज्य (घृत) की स्तुति की गई है, अतः उसके आधार पर आज्य या घृत से स्निग्ध कर कंकडों का चयन करना चाहिए । सिद्धान्त सूत्र के द्वारा एक तर्क ही प्रस्तुत किया गया है, जिसका स्वरूप ऊपर दिखाया जा चुका है)। इस प्रकार मीमांसा के प्राय: सभी अधिकरणों में तर्कों के द्वारा अर्थाभास का निरास कर वैदिक वाक्यों के वास्तविक अर्थ का निरूपण किया जाता है, अतः सम्पूर्ण मीमांसा शास्त्र तर्करूप ही होता है। मनु स्मृति में भी कहा है कि,- "आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्तकेंणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः ।। (मनु० १२/१०६) ___ जो व्यक्ति वेदशास्त्राविरोधी मीमांसादिरूप तर्कों के द्वारा श्रुतियों और स्मृतियों का विचार करता है, वही धर्म का रहस्य जान सकता है, अन्य व्यक्ति नहीं । इसी प्रकार उपमान, अर्थापति और अनुपलब्धि प्रमाणों के सहायक तर्कों की कर लेनी चाहिए । अतः यह सिद्ध हो गया कि तर्क सभी प्रमाणों का अनग्राहक होता है, उसी की सहायता से साधनीयार्थ की विपर्ययाशङ्का निवृत्त होती है। तर्क के विषयादि का निर्धारण तार्किकरक्षा (पृ० कार किया गया है कि, इसका अज्ञात और सन्दिग्ध पदार्थ विषय, आरोपित (प्रसञ्जक) हेतु और तत्त्वार्थ-निर्णय फल माना जाता है। अतः तत्त्वार्थ की सिद्धि करने तथा अन्यथा मानने पर अनिष्ट-प्रसक्ति करने के लिए असदारोप (धूमाभावादि असत् पदार्थों का आरोप) तथा उसके साधनीभूत (वन्यभावरूप) प्रसञ्जक का प्रयोग करना आवश्यक है । आरोपात्मक तर्कों के प्रयोग में कहीं-कहीं सिद्धान्त-गत भ्रम भी हो जाता है, जैसे कि अपौरुषेय वेद-वादी मीमांसक के वेदश्चेदीश्वराधीनः स्यात्, तर्हि ईश्वरोऽपि न सिध्येत्'-ऐसा तर्क-प्रयोग करने पर कुछ लोगों को भ्रम हो जाता है कि मीमांसा-सिद्धान्त में ईश्वर का अभाव है । इसी प्रकार कहीं असम्भाव्य पदार्थ का आरोप करने पर असन्तोष भी हो जाता है, जैसे ऐसा कहना - यदि ‘परमाणु में अवयवों के अपकर्ष की विश्रान्ति न मानकर अनन्त अवयव-परम्परा मानी जाती है, तब समान रूपेण अनन्तावयवों से आरब्ध होने के कारण महान् सुमेरु पर्वत और सर्षप (सरसों के नन्हें से दाने) का समान परिमाण होना चाहिए' । कथित सिद्धान्तगत भ्रमादि की निवृत्ति के लिए यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि केवल अपौरुषेयत्वादि-साधक शब्दादि प्रमाण के समर्थन में उक्त तर्क प्रस्तुत किया गया है, वह कोई सिद्धान्त-स्थापन नहीं किया गया । यद्यपि यहाँ तर्क का मुख्य प्रकरण नहीं, तर्क केवल प्रसङ्गतः प्राप्त है, तथापि महत्त्वपूर्ण एवं अत्यन्त उपकारी होने के कारण तर्क विस्तृतरूप में प्रस्तुत किया गया है ।।३०।। । इस प्रकार तर्क की सहायता से भूयोदर्शन के द्वारा निरुपाधिक सम्बन्ध का निश्चय किया जाता है । उसमें भूयोदर्शन से केवल दृश्य उपाधि का निराकरण होता है, अदृश्य उपाधि की शङ्का तो तर्क के द्वारा ही निरस्त होती है । अत: व्याप्ति सिद्ध हो जाती है । बौद्ध गण जो कहते हैं कि तादात्म्य और तदुत्पत्ति इन दो सम्बन्धों के द्वारा ही साध्य और साधन की व्याप्ति सिद्ध होती है । जैसे - वृक्षत्व के साथ शिंशपात्व की व्याप्ति 'तादात्म्य' और अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति 'तदुत्पत्ति' से निश्चत होती है । (श्री धर्मकीर्ति ने कहा है - "स च प्रतिबन्धः साध्येऽर्थे लिङ्गस्य वस्तुतः तादात्म्यात् तदुत्पत्तेश्च" (न्या०बि० पृ० ११३) । 'अयं वृक्षः, शिशपात्वात्'-यहाँ पर शीशम में वृक्षत्व की सिद्धि इस लिए हो जाती है कि शिशपा भी एक वृक्ष-विशेष है, सामान्य और विशेष में तादात्म्य या अभेद होता है, वस्तुतः दोनों में अभेद होने पर भी कल्पनारूढ भेद को लेकर, उनमें साध्य-साधनभाव माना जाता है । 'अयमग्निमान् धूमवत्त्वात्' - यहाँ पर धूम से अग्नि की सिद्धि इसलिए होती है कि धूम अग्नि से उत्पन्न होता है, कार्य के द्वारा कारण की सिद्धि लोकप्रसिद्ध है)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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