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________________ ५७८/१२०१ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-२, परि-६ वेदज्ञो भविष्यति, द्विजत्वात्' - यहाँ पर केवल 'द्विजत्व' धर्म साध्य का साधक नहीं होता, अपितु बुद्धयादियुक्तद्विजत्व, यही धर्म यहाँ उपाधि है, अतः किसी प्रयोग में यदि उपाधि दिखानी हो तो ऐसा धर्म खोजना चाहिए, जो पक्ष में न रहता हो (साधन का व्यभिचारी या अव्यापक हो) और सभी सपक्षों में रहता (साध्य का व्यापक) हो। __कथित उपाधि धूमगत अग्नि-सम्बन्ध (व्याप्ति) में नहीं है, अतः यह सम्बन्ध स्वाभाविक है । इस प्रकार के स्वाभाविक सम्बन्ध का ग्रहण कैसे होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि प्रथमतः महानस (रसोई घर) आदि स्थानों में बार-बार धूम का अग्नि के साथ सहचार देख कर क्रमशः महानसत्व, गृहत्व और ग्रामत्वादि में शङ्कित उपाधिता का व्यभिचारादर्शन के द्वारा एवं अन्यान्य उपाधियों का योग्यानुपलब्धि के माध्यम से निराकरण हो जाता है । इस प्रकार भूयः सहचार-दर्शन और उपाध्याभाव-ग्रहण से जनित संस्कारो का सहयोग लेकर चक्षुरादि इन्द्रियाँ अग्नि और धूम के उक्त स्वाभाविक सम्बन्ध का ज्ञान उत्पन्न करती हैं । श्री चिदानन्द पण्डित ने भी ऐसा ही कहा है-शङ्कितोपाध्यभावावगमे सति यस्य येन यादृशः सम्बन्धो दृष्टान्तधर्मिषु दृष्टः, तस्य तेन सह तादृशं सम्बन्धं भूयोदर्शनजनितसंस्कारसहकृतमक्षमेव निरुपाधिकत्वेन निश्चिनोति" (नीति पृ० १३८)। वार्तिककार भी कहते हैं- "भूयोदर्शनगम्या च व्याप्ति: सामान्यधर्मयोः। ज्ञायते भेदहानेन क्वचिच्चापि विशेषयोः ।।" (श्लो० वा० पृ० ३५०) प्राभाकर गण जो कहते हैं कि, धूम का अग्नि के साथ सम्बन्ध-ग्रहण सकृत् (एकवार के) दर्शन से ही हो जाता है। उपाधि-शङ्का का निरास करने के लिए भूयोदर्शन अपेक्षित होता हैं, श्री शालिकनाथ मिश्र कहते है-"कथमनौपाधिकत्वावगमः? प्रयत्नेनान्विष्यमाणे औपाधिकत्वानवगमात्। तच्चैतद् भूयोदर्शनायत्तमिति मन्वाना आचार्या भूयोदर्शनमादृतवन्तः" (प्र० पं० पृ० २०५) उक्त प्राभाकर मत युक्ति-युक्त नहीं, क्योंकि अनुमान के अङ्गभूत सम्बन्ध को ही व्याप्ति कहा जाता है, निरुपाधिकत्व-विशिष्ट सम्बन्ध को ही अनुमान का अङ्ग माना जाता है, सामान्य सम्बन्ध को नहीं । निरुपाधिकत्व का निश्चय भूयोदर्शन से होता है - ऐसा प्राभाकर गणों ने भी कहा है, अतः भूयोदर्शन के द्वारा ही निरुपाधिक सम्बन्धरूप व्याप्ति का निश्चय होता है । (चिदानन्द पण्डित ने भी प्राभाकर मत का निराकरण करते हुए कहा है - "एतेन सकृद्दर्शनगम्यत्वं व्याप्तेरपास्तम्, प्रथमदर्शने शङ्कितोपाध्यनवगमेन निरुपाधिकान्वयानवगतेः” (नीति० पृ० १३८)। ___ शङ्का : भूयोदर्शनमात्र से निरुपाधिकत्व का अवधारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि भूयोदर्शन तो मैत्री-पुत्रत्व और श्यामत्व के सहचार में भी हैं, किन्तु वह व्याप्ति नहीं कहलाता । समाधान : उक्त शङ्का के समाधान में श्री चिदानन्द पण्डित ने कहा है-"न केवलं भूयोदर्शनैस्तादृशमवधारणं सिध्यतीति प्रमाणोत्पत्त्यनुगुणस्तर्कोऽपि तत्र सहकारी" (नीति० पृ० १३७) । अर्थात् केवल भूयोदर्शन से निरुपाधिक सम्बन्ध का निश्चय नहीं होता, अतः उसके समुचित प्रमापक की उत्पत्ति के लिए अनुग्राहक (मैत्री-तनयत्व और श्यामत्व की औपाधिक व्याप्ति निवृत्त्यर्थ) तर्क की अपेक्षा होती है । कः पुनस्तर्कः ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि किसी प्रमाण के द्वारा साध्यमान पदार्थ में अन्यथात्व शङ्का की निवृत्ति के लिए अन्यथात्व-पक्ष में दोष-प्रसक्ति का नाम तर्क है, अतः एव तार्किकों ने तर्क का लक्षण किया है - तर्कोऽनिष्टप्रसङ्गः स्यादनिष्टं द्विविधं मतम् । प्रामाणिकपरित्यागस्तथेतरपरिग्रहः ।। (ता० र० पृ० १८५) (अर्थात् अनिष्ट-प्रसङ्ग को तर्क कहते हैं, अनिष्ट दो प्रकार का होता है-(१) प्रामाणिक पदार्थ का परित्याग और (२) अप्रामाणिक अर्थ का ग्रहण । जैसे 'विमतमुदकं पिपासाशामकम्, विशिष्टोदकत्वात्, मत्पीतोदकवत्'-इस अनुमान में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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