SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ५७७ / १२०० बन सकता है, अतः उसका निरास करने के लिए 'सम' शब्द रखा गया है । शब्देतरत्व धर्म साध्यरूप अनित्यत्व का समव्याप्त नहीं, क्योंकि अनित्यत्वेन निश्चित सभी शब्देतर घटादि पदार्थों में अनित्यत्व के रहने पर भी सभी शब्देतर आत्मादि में अनित्यत्व नहीं रहता, 'शब्दोऽनित्यः, कृतकत्वात् ' - यह अनुमान केवल तार्किकों की रीति पर व्याप्ति और उपाधि-लक्षण का पद-कृत्य दिखाने के लिए रख दिया गया है, मीमांसा - सिद्धान्त के अनुगुण नहीं, प्रत्युत विरुद्ध है, क्योंकि मीमांसक 'शब्द' को नित्य मानते हैं और उक्त अनुमान के द्वारा शब्द में अनित्यत्व सिद्ध किया जाता है । शङ्का : जैसे वह्नि में धूम - व्यापकत्व का सन्देह निवृत्त करने के लिए यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है - 'यदि वन्यभावेऽपि धूमः स्यात्, तदा वह्निजन्यो न स्यात् । ' वैसे पर्वतेतरत्व में साध्य व्यापकत्व का सन्देह दूर करने के लिए 'पर्वतेतरत्वाभावेऽपि यद्यग्निः स्यात्, तदाऽयं दोषः स्यात्' - इस प्रकार का कोई तर्क दिखाया नहीं जा सकता, अतः पर्वतेतरत्व में अग्निरूप साध्य की व्यापकता का निश्चय न हो सकने के कारण उपाधित्व क्योंकर निश्चित होगा ? (श्रीनिवासाचार्य ने न्यायपरिशुद्धि की व्याख्या में कहा है कि - "पक्षेतरत्वादेरनुग्राहकतर्काभावादेव साध्यव्यापकत्वं ग्रहीतुं न शक्यते" (पृ. १०६) । श्री वर्धमानोपाध्याय ने भी समव्यापकत्व घटित लक्षण का निराकरण करते हुए कहा है कि - "नापि साध्यसमव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधित्वम्, विषमव्याप्तस्यानुपाधित्वप्रसङ्गात्" (किर. पृ. ५६५) । अत एव श्री उदयनाचार्य ने समत्वाघटित ही लक्षण किया है. - "कः पुनरुपाधिः ? साध्यप्रयोजकं निमित्तान्तरम् । किं वाऽस्य लक्षणम् ? साधनाव्यापकत्वे सति साध्यव्यापकत्वम्” (आत्म. पृ. ४०३) समाधान - अनुग्राहक तर्क के न होने पर भी पक्षेतरत्व में साध्यव्यापकत्व की आपात प्रतीति को लेकर अतिप्रसङ्ग और समत्व-घटित व्यापकता को लेकर अनायास उस अतिप्रसङ्ग की निवृत्ति देख कर चिदानन्द पंडित (नीति० पृ० १३०), श्री वेङ्कटनाथ ( न्या. परि. पृ. १०) तथा श्री वरदराज ( ता. २० पृ. ६६ ) आदि विद्वानों ने समव्यापकत्व - घटित लक्षण ही अपनाया है । समव्याप्तिमतामेव सर्वथापि ह्युपाधिता । इति विस्पष्टतार्थं च समशब्दो न दूषणम् ।।१०।। साध्य के समव्यापक धर्म ही प्रायः उपाधि होते है - इस तथ्य का स्पष्टीकरण करने के लिए 'सम' शब्द का प्रयोग किया गया है, अतः यह कोई गम्भीर दोष नहीं है । । १० ।। उपाधि दो प्रकार की होती है - (१) निश्चित ओर (२) शङ्कित । जिस उपाधि के कथित दोनों विशेषण निश्चित होते हैं, वह निश्चित उपाधि होती है, जैसे पूर्वोक्त 'निषिद्धत्व' उपाधि और जहाँ उक्त दोनों विशेषण या उनमें से कोई अन्यतरसन्दिग्ध हो, उसे शङ्कित उपाधि कहते है, जैसे श्री वरदराज कहते हैं- “मैत्रीगर्भत्वेन सप्तमगर्भस्य श्यामत्वे साध्ये शाकाद्याहारपरिणतिः । पक्षभूते हि सप्तमगर्भे श्यामत्वोपाधेः शाकाद्याहारपरिणामस्याभावानिश्चयात् साध्यव्यापकत्वं सन्दिग्धम् " ( ता. २० पृ. ८०) । अर्थात् मैत्री नाम की स्त्री के आठ पुत्र हैं, उनमें सात श्याम वर्ण के और आठवाँ गौर वर्ण का है, उस आठवें को पक्ष बनाकर कोई श्यामत्व सिद्ध करना चाहता है - "गर्भस्थो मैत्रीतनयः श्यामः, मैत्रीतनयत्वात् पूर्वतनतनयसप्तकवत्" - यहाँ 'शाकपाक - जन्यत्व' उपाधि है, मैत्री पत्तीवाला शाक बहुत खाती थी, अतः शाकाहार के रस-परिपाक से प्रभावित सात पुत्रं श्याम वर्ण के हो गये और आठवें का गर्भ-वास होने पर शाकाहार नहीं हुआ, अतः वह गौर हो गया । यहाँ साधन के आधारभूत अष्टम पुत्र में 'शाक - पाक - जन्यत्व' सन्दिग्ध होने के कारण उपाधि में साधनाव्यापकत्व भी सन्दिग्ध रह जाता है, अतः यह उपाधि सन्दिग्ध कहलाती है ।। ११ । । तस्मादुपाधिमिच्छद्भिः पक्षभूमिमनाप्नुवन् । सपक्षान् व्याप्नुवन् धर्मो मृग्यतामिति सङ्ग्रहः ।।११।। कहीं-कहीं अनुमान में प्रयुक्त साधन का विशेषरूप ही प्रयोजक (साध्य-साधक) होता है, जैसे 'अयं द्विजो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy