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________________ ५६४ /११८७ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ हैं कि,- अथवा वस्तु का अभिधान नाम है, उसका आकार स्थापना है, भावपर्याय के प्रति कारणता द्रव्य है और कार्य दशा में वह वस्तु भाव है । सारांश यह है कि, तत्त्वार्थ के टीकाकार कहते हैं कि, यदि मनुष्य जीव को देव जीव का कारण होने से द्रव्य जीव कहा जाय तो वह द्रव्य जीव ही रहेगा, वह भाव जीव न हो सकेगा, इस प्रकार संसारी जीव में भाव का निक्षेप व्यापक नहीं रहेगा । जो सिद्ध जीव भाव जीव होगा वह द्रव्य जीव न हो सकेगा । इस प्रकार निक्षेप अव्यापक रहेगा । श्री महोपाध्यायजी कहते हैं कि - टीकाकारश्रीने द्रव्य जीव का प्रतिपादन करनेवाले इस मत में जिस रीति से निक्षेप की अव्यापकता का निरूपण किया है वह उचित नहीं है । जो संसारी जीव अन्य भव के जीव का कारण होने से द्रव्य है, वह भाव भी हो सकता है। एक अर्थ, कारण होने से द्रव्य और कार्य दशा में होने से भाव कहा जाय तो इसमें कोई बाधक नहीं है । जो जीव संसारी है वह अनादि पारिणामिक जीवभाव से युक्त है इसलिए भाव जीव है, देव जीव का कारण है इसलिए द्रव्य भी है । विशेषावश्यक के भाष्यकार एक अर्थ में द्रव्य और भाव का प्रतिपादन करते हैं । केवलमविशिष्टजीवापेक्षया द्रव्यजीवत्वव्यवहार एव न स्यात्, मनुष्यादेदेवत्वादिविशिष्टजीवं प्रत्येव हेतुत्वादिति। अर्थ : इस प्रकार मानने पर केवल सामान्य जीव की अपेक्षा से द्रव्य जीव का व्यवहार न हो सकेगा । मनुष्य आदि देवभाव से विशिष्ट जीव के प्रति ही कारण है । श्री महोपाध्यायजी स्वयं उक्त मत में दोष का प्रतिपादन इस रीति से कहते हैं, - जो मनुष्य देव जीव का कारण हैं उसको द्रव्य देव कहा जा सकता है, पर द्रव्य जीव नहीं कहा जा सकता । घट का कारण होने से मृत्पिंड को द्रव्य घट कहते हैं। द्रव्य पृथिवी नहीं कहते । जो मनष्य जीव है वह स्वयं अजीव होकर जीव का कारण नहीं हैं इसलिए सामान्य जीव की अपेक्षा द्रव्य जीव नहीं कहा जा सकता । मनुष्य और देव में कार्य-कारणभाव होने से सामान्य जीव की अपेक्षा किसी अर्थ में कार्यकारण भाव नहीं सिद्ध होता । अतः सामान्य जीव की अपेक्षा से जीव के विषय में द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता । इस कारण जो निक्षेप में अव्यापकता है, उसको मानना चाहिए । जीव क्या, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय भी इस प्रकार के अर्थ है कि, जिन में द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता । यदि कोई इस प्रकार का अर्थ हो, जो स्वयं धर्मास्तिकाय के रूप में न हो और धर्मास्तिकाय का कारण हो, तो वह द्रव्य धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है । परन्तु इस प्रकार का अर्थ नहीं है, अतः धर्मास्तिकाय में द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता । अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में भी इसी प्रकार द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता । कुछ अर्थों में किसी निक्षेप के न होने पर भी प्रायः सब अर्थों में चारों निक्षेप हो सकते हैं, इसलिए इसको व्यापक कहा गया हैं । (यह 'निक्षेपयोजन' चेप्टर जैनतर्क भाषा की पं. श्री ईश्वरचन्द्र शर्मा कृत हिन्दी विवेचना को सामने रखकर तैयार किया गया है ।) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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