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________________ निक्षेपयोजन ५६३ / ११८६ में उपयोग नहीं है, तब पुरुष द्रव्यजीव कहा जा सकता है । इस विषय में श्री महोपाध्यायजी इस उत्तर को बहुत युक्त नहीं समझते । निक्षेप के प्रकरण द्रव्य वह होता है, जो भाव का कारण हो पर स्वयं भाव रूप न हो । द्रव्य का यह मुख्य स्वरूप जीव में नहीं हो सकता । मुख्य रूप अपरे तु वदन्ति अहमेव मनुष्यजीवो (द्रव्यजीवो) ऽभिधातव्यः उत्तरं देवजीवमप्रादुर्भूतमाश्रित्य अहं हि तस्योत्पित्सार्देव जीवस्य कारणं भवामि यतश्चाहमेव तेन देवजीवभावेन भविष्यामि, अतोहमधुना द्रव्यजीव इति । एतत्कथितं तैर्भवतिपूर्वः पूर्वो जीवः परस्य परस्योत्पित्सोः कारणमिति । अस्मिंश्च पक्षे सिद्ध एव भावजीवो भवति नान्य इति एतदपि नानवद्यमिति तत्त्वार्थटीकाकृतः । अर्थ : अन्य लोग कहते हैं कि - जो अभी उत्पन्न नहीं हुआ इस प्रकार के उत्तर काल में होनेवाले देव जीव की अपेक्षा से 'मैं मनुष्य जीव ही द्रव्य जीव हुँ इस प्रकार कहना चाहिए । क्योंकि, इस उत्पन्न होनेवाले देव जीव का मैं कारण हुँ । मैं ही उस देव जीव के स्वरूप में होऊँगा, इसलिये मैं अब द्रव्य जीव हुँ । उनके कहने का अभिप्राय इस प्रकार है - पूर्व पूर्व काल का जीव उत्पन्न होनेवाले पर पर काल के जीव का कारण है । इस पक्ष में सिद्ध ही भाव जीव हो सकता है, अन्य नहीं, इस कारण यह मत भी दोष रहित नहीं है, यह तत्त्वार्थ की टीका के कर्ता कहते हैं । कहने का आशय यह है कि, जो लोग कारण को द्रव्य मानकर जीव के विषय में द्रव्य निक्षेप का प्रतिपादन करते हैं, उनके मत का निरूपण और उसमें दोष का प्रतिपादन श्री महोपाध्यायजी ने तत्त्वार्थ के टीकाकार के अनुसार किया है। जो अभी मनुष्य है, पर कालान्तर में देव रूप से स्वर्ग में उत्पन्न होगा, वह देव जीव का कारण है । मृत्पिंड जिस प्रकार घट रूप में परिणत होता है इस प्रकार मनुष्य का जीव देव जीव का कारण है । इस रीति से कुछ लोग उत्पत्ति और विनाश से रहित जीव के भी उत्पादक जीव का प्रतिपादन करते हैं । कार्य की अपेक्षा कारण पूर्व काल में होता है । देव जीव उत्तर काल का है, मनुष्य जीव पूर्व काल का है, इसलिए इन दोनों जीवों में कार्य-कारण भाव हो सकता है, यह कुछ लोगों का द्रव्य जीव के विषय में मत हैं । तत्त्वार्थ के टीकाकार कहते हैं कि, यदि इस मत को मानकर द्रव्य जीव का उपपादन किया जाय तो मनुष्य आदि सभी जीव द्रव्य जीव हो जायेंगे । एक भव का जीव उत्तर काल के भव के जीव का कारण होता है, इस अपेक्षा के अनुसार समस्त जीव द्रव्य जीव हो जायेंगे, कोई भावजीव नहीं रहेगा । कार्य दशा में अर्थ भाव है और कारण दशा में द्रव्य है । एक ही काल में एक ही अर्थ कार्यरूप और कारणरूप नहीं हो सकता, इस मत को मान लेने पर केवल एक सिद्ध ही भाव जीव हो सकेगा । सिद्ध हो जाने के अनंतर जीव अन्य भव में उत्पन्न नहीं होता, इसलिए वह भाव रूप में ही रहेगा । जितने भी संसारी जीव हैं, वे सब इस मत के अनुसार द्रव्य हो जायेंगे, कोई भी भाव जीव न हो सकेगा । वास्तव में संसार के सभी जीव भावजीव हैं, अतः इस रीति से द्रव्य जीव का स्वरूप उचित नहीं है । अब श्री महोपाध्यायजी अपनी मान्यता को बताते हुए कहते है कि, इदं पुनरिहावधेयं - इत्थं संसारिजीवे द्रव्यत्वेऽपि भावत्वाविरोधः, एकवस्तुगतानां नामादीनां भावाविनाभूतत्वप्रतिपादनात् । तदाह भाष्यकार :- " अहवावत्थूभिहाणं नामं ठवणा य जो तयागारो कारणया से दव्वं, कज्जावन्नं तयं भावो || १ || ” (६०) इति । - अर्थ : यहाँ यह ध्यान देने योग्य है इस प्रकार संसारी जीव के द्रव्य होने पर भी भावत्व का विरोध नहीं होगा । एक वस्तु में रहनेवाले नाम आदि का भाव के साथ अविनाभाव है, इस वस्तु का प्रतिपादन शास्त्र में है । भाष्यकार कहते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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