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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-५ में पंख नहीं होते परन्तु कल्पना के द्वारा उसमें पंख लगाये जा सकते हैं । इसी प्रकार द्रव्य यद्यपि किसी काल में गुण और पर्यायों से रहित नहीं होता तो भी द्रव्य के इस प्रकार के स्वरूप की कल्पना की जा सकती है, जिसमें गुण और पर्याय न हों । इस प्रकार का गुण और पर्याय से रहित जीव पीछे के काल में गुण और पर्याय से युक्त हो सकता है । इस प्रकार कल्पित जीव को गुण और पर्याय से विशिष्ट जीव का कारण होने से द्रव्य जीव कहा जा सकता है । कुछ लोग इस प्रकार जीव के विषय में भी द्रव्य निक्षेप का प्रतिपादन करते हैं ।
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परन्तु यह युक्त नहीं है । जो वस्तु विद्यमान है उसके विरुद्ध कल्पना हो सकती है, परन्तु कल्पना के अनुसार अर्थ का परिणाम नहीं होता । मनुष्य के शरीर में कल्पना से सिंह का सिर लगा देने पर भी वास्तव में सिर का सम्बन्ध नहीं होता और न ही मनुष्य के शरीर पर पँख हो जाते हैं । इसी प्रकार अनादि पारिणामिक चैतन्य से युक्त किसी भी समय में गुण और पर्यायों से रहित नहीं हो सकता । अतः इस प्रकार का कल्पित जीव, भाव जीव की अपेक्षा से द्रव्य जीव नहीं हो सकता । इस लिये जीव के विषय में द्रव्य निक्षेप नहीं है ।
यहाँ उल्लेखनीय है कि, यहाँ पर तर्क भाषा के मुद्रित पाठ में इतना (पूर्वोक्त फेरफार किया जाय तो श्री महोपाध्यायजी ने तत्त्वार्थ सूत्र के न्यास प्रतिपादक भाष्य की जिस प्रकार व्याख्या की है, उसके साथ पूर्ण संमति हो जाती है। 'जीव के विषय द्रव्यजीव को अस्वीकृत करने में नामादि चार निक्षेपों की व्यापकता का भंग हो जायेगा' ऐसी शंका का समाधान देते हुए अब कहते है कि,
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न चैवं नामादिचतुष्टयस्य व्यापिता भङ्गः यतः प्रायः सर्वपदार्थेष्वन्येषु तत् सम्भवति । यद्यत्रैकस्मिन्न सम्भवति नैतावता भवत्यव्यापितेति वृद्धाः ।
अर्थ : इस प्रकार होने से नाम आदि चार निक्षेपों की व्यापकता का भङ्ग हो जाता है, यह नहीं मान लेना चाहिए। क्योंकि, प्रायः अन्य समस्त पदार्थों में वे हो सकते है, यदि यहाँ एक में नहीं होते तो इतने से उनकी व्यापकता दूर नहीं होती, यह वृद्ध लोगों का कहना है ।
विशेषार्थ : अनुयोग द्वार सूत्र में कहा है कि, - जो भी अर्थ हो उसमें चारों निक्षेपों का सम्बन्ध करना चाहिए - " जत्थ य जं जाणिज्जा न निक्खेवे णिरवसेसं । जत्थ वि य न जाणिज्जा चउक्कयं णिक्खिवं तत्थ ।। " ( अनुयोग द्वार सू. १) इति । इस वचन से निक्षेप वस्तु मात्र के व्यापक प्रतीत होते । यदि जीव में द्रव्य का निक्षेप न हो सके तो व्यापकता का भङ्ग हो जाता है । इसके उत्तर में कहते हैं कि, अधिक पदार्थों के साथ सम्बन्ध होने से यहाँ पर व्यापकता । कुछ अर्थों में यदि किसी निक्षेप का संबंध न हो तो इतने से व्यापकता का भङ्ग नहीं हो जाता । तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य की टीका में इस वस्तु का प्रतिपादन है । (तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, स्वोपज्ञभाष्यटीकालङ्कृत, प्रथम अध्याय, सूत्र ५) अब जीव के द्रव्यनिक्षेप की मान्यता में अन्य मत प्रस्तुत करते है .
जीवशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्यजीव इत्यप्याहुः ।
अर्थ : जो जीव शब्द के अर्थ को जानता है किन्तु जीव के विषय में किसी काल में उपयोग से शून्य है, वह पुरुष उस काल में द्रव्य जीव है, यह भी कुछ लोग कहते हैं ।
कहने का सार यह है कि, जो लोग निक्षेपों की व्यापकता को सिद्ध करना चाहते हैं, उनमें से कुछ लोग शास्त्र की परिभाषा का आश्रय लेकर जीव के विषय में द्रव्य निक्षेप का निरूपण करते हैं । " अनुपयोगो द्रव्यम्" इस प्राचीन परिभाषा अनुसार उपयोग के अभाव को द्रव्य कहते हैं । इसलिए जीव शब्द के अर्थ का ज्ञान होने पर भी जब जीव के विषय
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